धर्म के नाम पर किया जाने वाला प्रत्येक कार्य धर्म नहीं होता, बहुत-सा कार्य धर्माभास भी होता है जो लगता तो धर्म जैसा है पर धर्म नहीं होता है और इसीलिए उसका परिणाम भी धर्मानुकूल नहीं होता है।
धनाद् धर्म: तत: सुखम्।
धर्म का परिणाम सुख होता है। धर्माभास में केवल उतना ही सुख मिलता है जितने अंश में उसमें धर्म होता है। जितने अंश में अधर्म होता है या जितना वह अधर्म के पोषण में सहायक होता है, उतना ही कष्ट और दुख भी धर्माभास में प्राप्त होता है।
महाभारत में देवव्रत भीष्म, आचार्य द्रोण, कृपाचार्य, शल्य सब धर्माभास ही कर रहे थे पर उन्हें लगता था कि वे धर्म कर रहे हैं। उन सबको वह परिणाम नहीं मिला जो धर्म का होता है क्योंकि वे वास्तव में धर्माभास ही कर रहे थे।
भीष्म और फिर द्रोण को उनके इस संश्लिष्ट आचरण की वास्तविकता का बोध मृत्यु से पूर्व स्वयं श्री भगवान् ने कराया था अन्यों को यह बोध भगवान् का मूर्त्तिमान् अवतार दण्ड कराता है क्योंकि
दण्डो नारायणो हरि:
यह कालदण्ड जब मनुष्य के शीश पर पड़ता है तब उसे अपने अधर्म और धर्माभास का विधिवत् ज्ञान हो जाता है क्योंकि धर्म का संपूर्ण ज्ञान नारायण ही करा सकते हैं।
इस लोक के कल्याण के लिए उन्होंने श्रुतियाँ उत्पन्न की हैं जिनकी निन्दा करने वाला ही नास्तिक कहा गया है।
नास्तिको वेदनिन्दक:
ध्यान रहे कि हमारी परंपरा में वेद का निंदक नास्तिक होता है न कि ईश्वर का निंदक जैसा कि आप बाल बुद्धियों को बच्चों की पुस्तकों में पढ़ाया जाता है।
इतिहास और पुराण में वेदों का ही उपबृंहण है।
इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत्।
इसलिए पुराणेतिहास की निंदा करने वाला भी वैसा ही है। ध्यातव्य है कि यहाँ इतिहास का अर्थ इतिहास है हिस्ट्री नहीं।
स्मृतियाँ वेदानुकूल होने पर ही स्मृतियाँ हैं।
श्रुतेरिवार्थस्मृतिरन्वगच्छत्
इसीलिए प्रत्येक संकल्प में पढ़ा जाता है-
श्रुतिस्मृतिपुराणोक्तफलप्राप्त्यर्थम्
अब इन श्रुतिस्मृतिपुराणों में परिवर्तन की इच्छा रखने वाले नास्तिकों द्वारा केवल धर्माभास किया जा सकता है, धर्म नहीं।
इसलिए यह अपना कल्याण चाहने वालों को विचार करना है कि उन्हें श्रुतिस्मृतिपुराणोक्त धर्म का पालन करना है जिसका परिणाम सुख और आनन्द है। अथवा नास्तिकों द्वारा व्याख्यायित धर्माभास का जिसका परिणाम दुख और कष्ट ही है।
विद्वच्चरणचञ्चरीक:
आङ्गिरस:
ज्येष्ठ कृष्ण एकादशी
विक्रमी २०८२
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धर्म: विजयतेतराम्।
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