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जब कोई सभ्यता अपने देवताओं का देवत्व विस्मृत कर उन्हें केवल मानवीय पात्रों के रूप में देखने लगती है, जब श्रद्धा के स्थान पर तर्क और शंका शासन करने लगती है, और जब परम्पराएँ आधुनिकता के नाम पर तिरस्कृत होने लगती हैं—तब वह सभ्यता धीरे-धीरे अपने ही मूलाधार को खो बैठती है।
प्राचीन रोमन सभ्यता इसका ज्वलंत उदाहरण है। एक समय था जब रोम केवल एक साम्राज्य नहीं, बल्कि एक जीवंत सांस्कृतिक चेतना था। उनके देवी-देवता उनके जीवन का केन्द्र थे। परंतु समय के साथ उन्होंने इन देवताओं को मानवीकरण की प्रक्रिया में उतार दिया—उन्हें केवल कथा-पात्र, मिथकीय चरित्र, और साहित्यिक प्रतीकों में सीमित कर दिया गया। देवत्व समाप्त हुआ, और उनके साथ उनकी आस्था भी।
जैसे ही यह हुआ, वैचारिक रूप से संगठित, एकेश्वरवादी अब्राहमिक मतों ने उस शून्य को भर दिया। और अंततः रोम ने अपनी पहचान खो दी—वह आस्था, संस्कृति और सत्ता, सब कुछ हार गया।
आज भारत भी उसी पतन-पथ की ओर अग्रसर है।
पिछले तीन सौ वर्षों में एक योजनाबद्ध बौद्धिक प्रक्रिया चलाई गई है, जिसमें हमारी परम्पराओं को ‘अंधविश्वास’ कहकर उपहासित किया गया। हमारे देवी-देवताओं को केवल ऐतिहासिक व्यक्ति, जातीय नायक, या पौराणिक कथा के पात्र कहकर प्रस्तुत किया जा रहा है। यह केवल विद्वानों या विदेशियों द्वारा नहीं हो रहा, हमारे अपने संगठन, इतिहासकार और बौद्धिक वर्ग भी इसी प्रवृत्ति का पोषण कर रहे हैं।
यह प्रक्रिया केवल वैचारिक नहीं, आत्मिक और सांस्कृतिक है।
लोग अपनी कुल परंपरा, वंशगौरव और गोत्र-आधारित पहचान से कट चुके हैं। उन्हें यह जानने की जिज्ञासा तक नहीं रही कि उनके कुलदेवता कौन हैं, उनका कुल धर्म क्या है, उनका गोत्र, ऋषि परंपरा, और लोकदेवता कौन हैं।
आज का शिक्षित वर्ग, जो तथाकथित आधुनिकता और सेकुलर विचारधारा से प्रभावित है, वह सनातन धर्म के मूल स्तम्भों को ही पोंगापंथ कहकर नकार रहा है। इनमें से अधिकांश शहरी वर्ग के हैं। जो ग्रामीण क्षेत्र में बचे हुए हैं, वहीं अभी थोड़ी बहुत पारम्परिक श्रद्धा, कुलदेवता की पूजा, और संस्कार शेष हैं। परंतु वहाँ भी अब यह प्रक्रिया पहुँच रही है। आधुनिक शिक्षा, मीडिया और डिजिटल संस्कृति गाँव को भी इस संक्रमण में सम्मिलित कर रही है।
अत्यंत दुर्भाग्य है कि आज नव-देवताओं का निर्माण किया जा रहा है—ऐसे प्रतीक और विचार जिनका न सनातन परम्परा से कोई सम्बन्ध है, न जिनमें कोई आत्मिक अनुशासन है। हमारी संस्कृति की जो मूल यात्रा थी—"नर से नरोत्तम" बनने की—वह अब विस्मृत हो रही है।
हमारी सनातनी व्यवस्था विकेन्द्रीकृत थी। प्रत्येक कुल, ग्राम और जाति की अपनी आराध्य परंपरा थी। कोई एक केंद्रीकृत धार्मिक सत्ता नहीं थी, कोई ‘एक पुस्तक’, ‘एक पैगंबर’, ‘एक ईश्वर’ का विचार नहीं था। यही विविधता हमारी शक्ति थी। परंतु अब्राहमिक विचारधाराओं ने इस विकेन्द्रीकृत तंत्र को तोड़कर एक केन्द्रीकृत, सत्ताकेंद्रित सामाजिक संरचना आरोपित कर दी है।
राजनीति में विकेन्द्रीकरण भले दिखता हो, परंतु समाज, धर्म और अर्थव्यवस्था में केन्द्रीकरण हावी हो चुका है। यही केन्द्रीकरण हिन्दू सभ्यता के पतन का बीज बन रहा है। हम स्वयं अपनी परम्परा, अपने देवी-देवताओं, अपने ऋषियों और अपनी सांस्कृतिक चेतना को ही काट रहे हैं।
यदि यह क्रम नहीं रुका, तो हमें किसी विदेशी आक्रमण की आवश्यकता नहीं होगी। हमारा आत्मविस्मरण ही हमारे विनाश का कारण बनेगा—ठीक उसी प्रकार, जैसे प्राचीन रोम का हुआ।
हमें स्मरण करना होगा—हमारी संस्कृति किसी एक पुस्तक, एक आदेश, या एक पैगंबर पर आधारित नहीं, अपितु यह लोकमंगल की विविध धाराओं का समन्वित प्रवाह है। देव से कुलदेव , कुल से परिवार, और परिवार से समाज तक की यात्रा ही सनातन संस्कृति है। यदि इस क्रम को हमने नहीं संभाला, तो यह सभ्यता केवल इतिहास की एक स्मृति बनकर रह जाएगी।
अब भी समय है—पुनः स्मरण का, पुनः श्रद्धा का, और पुनः आत्मगौरव के जागरण का।
✍️ दीपक कुमार द्विवेदी
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