- लिंक पाएं
- X
- ईमेल
- दूसरे ऐप
दुनिया के सारे 'मुसलमान' "बैतुलकुद्स, येरुशेलम" को अपना पहला किबला मानने के साथ ये भी मानते हैं कि यही वो जगह है जहाँ से उनके 'नबी' के मेराज़ का सफ़र शुरू हुआ था और इसलिए 'कुद्स' पर 'इस्लामी परचम' लहराना हरेक 'मुसलमान' की मंशा रही है; शुरुआती दौर से ही।
ऐसे ही एक दौर में जब 'बैतुलकुद्स' पर सलीबियों (ईसाइयों) का कब्ज़ा था; उस दौर में 'बग़दाद' में एक 'बूढ़ा बढ़ई' रहता था; जिसकी सारी जवानी इस उम्मीद में गुजरी थी कि 'कुद्स' पर 'इस्लामिक परचम' लहराये मगर उसके जवानी के काल में ये न हो सका।
वो वृद्ध हो गया पर उसकी आकांक्षा बाकी थी कि 'कुद्स फ़तह' में उसका भी कोई न कोई योगदान हो और इसी इच्छा को पूर्ण करने के लिए उसने 'अखरोट' की लकड़ी और मोतियों की मदद से एक बेहद खूबसूरत 'मिंबर' (मस्जिद में 'इमाम' के बैठने की जगह) बनाया।
इस 'मिंबर' की ख़ूबसूरती के चर्चे धीरे-धीरे पहले 'बग़दाद' की गलियों में और फिर उसके बाद पूरे 'मुस्लिम उम्मा' में फैलने लगी। एक से बढ़कर एक 'सरदार' और 'व्यापारी' उसके पास इस 'मिंबर' को खरीदने आने लगे ताकि इसे खरीदकर वो इसे अपनी तामीर की गई किसी 'मस्ज़िद' में लगवा सकें। वो उसकी मुंहमांगी कीमत तक देने को तैयार होते पर वो बूढ़ा बढ़ई कहता कि ये 'मिंबर' उसने बेचने के लिए नहीं बनाई है बल्कि ये तो उसने 'बैतुलकुद्स मस्जिद' में लगाने के लिए बनाई है।
उसकी बात सुनकर लोग हँसते और इसे पागल समझकर उससे कहते- तुझे लगता है कि आपस के जंग में उलझे हम 'मुसलमान' कभी सलीबियों से 'कुद्स' छीन पायेंगे?
इस पर वो बूढ़ा 'बढ़ई' एक ही बात कहता कि मैं अब अपने उम्र के इस दौर में बस दो ही काम कर सकता हूँ, एक काम मैंने 'मिंबर' बनाकर कर दिया और दूसरा काम मैं 'कुद्स फतह' का स्वप्न देखने का कर रहा हूँ और मुझे ये यकीन है कि मेरा ये स्वप्न और मेरा ये विश्वास किसी और की आँखों में भी पलेगा और किसी दिन एक 'मुज़ाहिद' उठ खड़ा होगा और एक दिन 'कुद्स' पर हम मुसलमानों का 'परचम' लहराएगा। ये 'मिंबर' मैंने उस दिन के लिए बनाई है जब 'मुसलमान' कुद्स फ़तेह करेंगे और 'कुद्स' फ़तेह करने के बाद ये 'मिंबर' 'बैतुलकुद्स' की जीनत बनेगी।
वक़्त बीतता गया और उसके साथ इस खूबसूरत 'मिंबर' के चर्चे 'इस्लामी दुनिया' में फैलते गए, हरेक इसकी ख़ूबसूरती का बखान बढ़ा-चढ़ा कर करता। वो बूढ़ा तो इस स्वप्न को अपनी आँखों में लिए दुनिया से चला गया पर उसके 'मिंबर' की ये कहानी कभी मरी नहीं और इस कहानी को एक छोटे से बच्चे ने भी सुनी पर उसे 'मिंबर' की खूबसूरती से अधिक उस बूढ़े बढ़ई के स्वप्न ने झकझोड़ दिया।
बूढ़े के स्वप्न को उस बच्चे ने साकार किया और इस कहानी के सुनने के 40 साल बाद उसी बालक ने अपने नेतृत्व में 'कुद्स' फ़तह किया और अपने हाथों से उस अखरोट और मोतियों से बने 'मिंबर' को 'कुद्स' में लगाया।
उस बालक ने 'बैतुलकुद्स' तब फ़तह किया था जब पूरे इस्लामिक जगत में किसी को भी अंदाज़ा नहीं था कि एक दिन कोई ये कर गुजरेगा पर उस बूढ़े बढ़ई ने जिस स्वप्न का बीजारोपण किया था उस बीज को एक दिन एक बालक ने ग्रहण कर उसे एक विशाल वृक्ष में परिणत कर दिया और 'बैतुलकुद्स' मुस्लिमों का हो गया।
इस बालक का नाम था "सलाहुद्दीन अय्यूबी"
"सलाहुद्दीन अय्यूबी" को कभी किसी ने हंसते हुए नहीं देखा था। उनसे किसी ने पूछा:- आपने कब से हंसना बंद कर दिया? उन्होंने उत्तर दिया :- जबसे सुना था कि बैतुल कुदुस हमारे पास नहीं है; इसलिए हंसना छोड़ दिया क्यूंकि हस्र के दिन खुदा मुझसे पूछेगा कि कूदस ईसाइयों के कब्जे में था और तू हंस रहा था?
"विचारधारा और लक्ष्य के लिए ऐसा डेडिकेशन क्या अभी हमारे यहां किसी में है? इतना तो क्या इसका शतांश भी किसी के पास है?"
(इस्लामिक उद्धरण इसलिए क्योंकि इधर से कोई उद्धरण देने में अब डर लगता है)
💥 Abhijeet Singh
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें