भारतवर्ष की संस्कृति और सभ्यता हजारों वर्षों से विश्व को आलोकित करती आई है। इस सनातन परंपरा में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को जीवन के मूल उद्देश्य के रूप में स्वीकार किया गया। जहाँ "अर्थ" को जीवन का अनिवार्य साधन माना गया, वहीं लक्ष्मी के पूजन से यह संकेत मिलता है कि धन का सृजन और संचय भारतीय जीवन दर्शन का स्वाभाविक अंग है। परंतु, स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने पश्चिमी साम्यवादी दृष्टिकोण से प्रेरित होकर जिस समाजवादी आर्थिक नीति को देश पर थोपा, उसने न केवल अर्थनीति को अवरुद्ध किया, बल्कि भारत की आत्मा और उसकी संभावनाओं को भी कुंठित कर दिया।
सिद्धांतों की भूमि पर विचारधाराएँ अक्सर आकर्षक प्रतीत होती हैं—समानता, शोषणमुक्ति और श्रमिकों के अधिनायकत्व की कल्पना—परंतु जब वही विचार व्यवहार की मिट्टी में उतरते हैं, तो वे रक्त, नियंत्रण और भूख के रूप में फलित होते हैं। साम्यवाद, जिसे संववाद या समाजवाद के नाम पर प्रचारित किया गया, ऐसा ही एक प्रयोग था जिसने मानव इतिहास को भय, अस्वतंत्रता और आर्थिक जड़ता की भट्टी में झोंक दिया।
साम्यवादी अर्थव्यवस्था का मूल दर्शन है कि सम्पत्ति पर व्यक्ति का नहीं, समाज (अर्थात राज्य) का अधिकार हो। उत्पादन, वितरण और मूल्य निर्धारण—सब कुछ सरकार के हाथों में रहे। परंतु यह व्यवस्था अपने प्रारंभ से ही व्यक्ति की स्वतंत्रता, उसकी आकांक्षा और नवाचार के नैसर्गिक प्रवाह की घोर विरोधी रही। मनुष्य केवल एक “उत्पादक इकाई” बन गया—जिसे विवेक, स्वप्न या स्वातंत्र्य की नहीं, केवल आदेश पालन की छूट थी।
सोवियत संघ इसका सबसे बड़ा उदाहरण बना। “पाँच वर्षीय योजनाएँ” और “केंद्रीकृत नियोजन” के नाम पर लाखों लोगों को भूख, श्रमशिविरों और असफल औद्योगिक प्रयासों में झोंका गया। व्यक्तिगत संपत्ति का हनन, किसान और श्रमिक वर्ग की स्वतंत्रता का हनन, और उत्पादन के हर आयाम में प्रतिस्पर्धा और गुणवत्ता का पतन—इन सबका परिणाम यह हुआ कि 70 वर्षों के भीतर सोवियत संघ की पूरी व्यवस्था चरमरा कर ढह गई।
चीन में भी "ग्रेट लीप फॉरवर्ड" और "सांस्कृतिक क्रांति" ने करोड़ों लोगों की जान ली। माओवाद ने खेतों को सामूहिक बना दिया, किंतु किसानों के मन से खेती का उत्साह ही नष्ट हो गया। परिणामस्वरूप अकाल और अराजकता फैली। अंततः चीन को भी बाज़ारवादी सुधारों की ओर झुकना पड़ा।
भारत ने भी स्वतंत्रता के बाद नेहरूवादी समाजवाद के प्रभाव में "मिश्रित अर्थव्यवस्था" अपनाई। परंतु व्यवहार में यह समाजवाद, एक नियंत्रित अर्थव्यवस्था में बदल गया—जिसमें “लाइसेंस-कोटा-परमिट राज” ने व्यक्तिगत उद्यमिता का गला घोंट दिया। हर छोटे उद्योग, हर व्यापार, हर नवाचार के लिए सरकार की अनुमति अनिवार्य हो गई। उद्योगपति व्यवस्था से नहीं, व्यवस्था से टकरा कर या समझौता कर आगे बढ़ते रहे। यह कोई संयोग नहीं था कि भारत की आर्थिक वृद्धि दर दशकों तक मात्र 3-4% रही, जिसे “हिंदू दर” कहकर उपहास किया गया।
एक साधारण नागरिक को टेलीफोन के लिए दस साल का इंतजार करना पड़ता था, गैस कनेक्शन और स्कूटर के लिए सिफारिशें चाहिए होती थीं, और विदेशी निवेशक भारत को "वर्जित क्षेत्र" मानते थे। सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियाँ नौकरशाही के अधीन होकर निष्क्रियता और घाटे का पर्याय बन गई थीं। भ्रष्टाचार, अनुत्पादकता और बेरोज़गारी समाज में व्याप्त हो चली थी।
1991 के आर्थिक सुधार और उनका प्रभाव
1991 के बाद भारत ने उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की नीतियाँ अपनाईं। देश ने विदेशी निवेश को आकर्षित करना शुरू किया, सरकारी नियंत्रण घटाया गया, और बाजार की भूमिका को बढ़ावा दिया गया। इसका परिणाम रहा:
आर्थिक वृद्धि दर में उल्लेखनीय सुधार, जो 6-8 प्रतिशत तक पहुंची।
विदेशी मुद्रा भंडार 1.2 अरब डॉलर से बढ़कर 600 अरब डॉलर से अधिक हो गया।
सूचना प्रौद्योगिकी, सेवा क्षेत्र, और विनिर्माण में तीव्र विकास हुआ।
मध्यम वर्ग का विस्तार हुआ और रोजगार के अवसर बढ़े।
आर्थिक उदारीकरण ने भारत को वैश्विक आर्थिक मंच पर मजबूत स्थिति प्रदान की, लेकिन इसके साथ-साथ सामाजिक असमानताएँ भी बढ़ीं। इसका सामना करने के लिए सनातनी आर्थिक मूल्यों का पुनः अवलंबन आवश्यक है, जो विकास को सभी वर्गों में समान रूप से वितरित कर सके।
पहलू 1947–1990 (समाजवादी मॉडल) 1991–2025 (उदारीकरण के बाद)
GDP वृद्धि दर 3.5% 6.8% औसतन, कई बार 8–9%
प्रति व्यक्ति आय ₹1,500 (1990) ₹1,80,000+ (2024)
विदेशी मुद्रा भंडार $1.2 बिलियन $620+ बिलियन
गरीबी दर 45% घटकर 10% से कम
बेरोज़गारी उच्च, नौकरी आधारित अर्थव्यवस्था उद्यम आधारित, स्टार्टअप क्रांति
नवाचार और निजी क्षेत्र सीमित, कुंठित सशक्त, वैश्विक प्रतिस्पर्धा के योग्य
सनातनी आर्थिक दृष्टिकोण उपेक्षित पुनः जागरण की ओर बढ़ता
आर्थिक चिंतन कोई शुष्क गणितीय समीकरण नहीं होता, वह मनुष्य की प्रकृति, समाज की रचना और सांस्कृतिक दृष्टि से गहराई से जुड़ा होता है। दुर्भाग्यवश, स्वतंत्र भारत की आर्थिक दिशा उस समय की वैश्विक वैचारिक खेमेबंदी और यूरोपीय बौद्धिक प्रभावों से प्रभावित रही, जिसमें भारत की अपनी सनातनी आर्थिक दृष्टि को या तो भूला दिया गया या जानबूझकर दरकिनार कर दिया गया।
सनातन परंपरा में अर्थ का विचार केवल 'संपत्ति संचय' नहीं, धर्मानुकूल आजीविका, न्यायपूर्ण वितरण, और सामाजिक समरसता का पर्याय रहा है। कौटिल्य का अर्थशास्त्र, याज्ञवल्क्य स्मृति, तथा महाभारत के शांति पर्व में राजा के दायित्व, कर नीति, व्यापारिक स्वतंत्रता, और श्रम मूल्यांकन की जो अवधारणा मिलती है, वह एक जीवंत और न्याय-सम्मत व्यवस्था का प्रमाण है। वहाँ न तो राज्य सर्वग्राही है और न ही निजी पूंजी अराजक। वहाँ 'स्वधर्म' और 'स्वतंत्रता' का संतुलन है।
परंतु 1947 के बाद भारत ने इस आत्मबोध की दिशा छोड़, पाश्चात्य समाजवादी मार्ग चुना—जो वस्तुतः साम्यवाद का नरम संस्करण था, पर परिणामों में उतना ही विघातक निकला।
सनातनी आर्थिक चिंतन न केवल आर्थिक लाभ के लिए बल्कि सामाजिक और पर्यावरणीय समरसता के लिए भी आवश्यक है। यह हमें याद दिलाता है कि अर्थव्यवस्था का अंतिम लक्ष्य केवल धन संचय नहीं, बल्कि समाज की भलाई, नैतिकता, और पर्यावरण संरक्षण भी है। 1991 के बाद के सुधारों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को गतिशीलता दी, लेकिन सनातनी मूल्य इस विकास को संतुलित और टिकाऊ बनाए रखने में सहायक होंगे।
इस प्रकार, भारत की आर्थिक यात्रा एक द्वैत की तरह है — एक ओर समाजवादी नियंत्रण की सीमाएँ और दूसरी ओर उदारीकरण के लाभ। सनातनी आर्थिक दर्शन इस द्वैत को पार कर, एक ऐसा मार्ग सुझाता है जो समृद्धि के साथ सांस्कृतिक और सामाजिक स्थिरता भी सुनिश्चित करे।
✍️ दीपक कुमार द्विवेदी
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें