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हिन्दू समाज को दोष देने की प्रवृत्ति आजकल बहुत सहज हो चली है—मानो उसके पतन के लिए वही उत्तरदायी हो। किन्तु यह दृष्टिकोण न केवल एकांगी है, वरन् उसके पीछे गहरा वैचारिक भ्रम भी छिपा है। "राष्ट्रवाद", "समाजवाद", "धर्मनिरपेक्षता" (सेक्युलरिज्म), "लोकतंत्र", "पूँजीवाद"—ये सब ऐसे शब्द हैं जो अब सामान्य राजनीतिक व सामाजिक विमर्श का हिस्सा बन चुके हैं। किन्तु यदि इनकी जड़ें टटोली जाएँ, तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि ये समस्त विचारधाराएँ अब्राहमिक सभ्यताओं की उपज हैं—ऐसी सभ्यताएँ जो या तो यहूदी-ईसाई परंपरा से निकली हैं, या इस्लामी दर्शन से। इनकी संरचना, सोच, और कार्यप्रणाली भारतीय वैदिक दृष्टिकोण से भिन्न ही नहीं, बल्कि कई बार विरोधाभासी भी है।
बीते तीन सौ वर्षों में अंग्रेजी शासन ने ऐसा विचारजाल बुना कि हममें से बहुत से लोग अनजाने में ही उसी के फ्रेम में सोचने लगे। इसका सबसे उल्लेखनीय उदाहरण स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसे युगद्रष्टा हैं। वे वेदों के प्रखर भाष्यकार और हिन्दू जागरण के अग्रदूत थे, किन्तु आरम्भ में वे भी मूर्तिपूजा-विरोध जैसे विचारों से प्रभावित हो गए थे—जो कि अब्राहमिक सोच से ही अनुप्राणित थे। जब ऐसे महापुरुष भी इस बौद्धिक प्रभाव से अछूते न रह सके, तो सामान्य जन की स्थिति का सहज अनुमान लगाया जा सकता है।
अब प्रश्न उठता है—इस भ्रमजाल से मुक्ति कैसे मिले? इसका उत्तर है—बौद्धिक आत्मचिंतन और वैदिक पुनरुत्थान। जो लोग विचारों के निर्माण में सक्षम हैं, जिन्हें लेखनी, वाणी या संगठन का माध्यम मिला है, उनका धर्म है कि वे सनातन दृष्टिकोण को पुनः प्रतिष्ठित करें। केवल रोष, पीड़ा या निराशा प्रकट करने से कुछ नहीं होगा। यह अपेक्षा करना कि कोई संगठन, कोई नेता, कोई प्रशासक या संत चमत्कारिक रूप से सबकुछ ठीक कर देगा—एक प्रकार की अकर्मण्यता है। कोई भी पूर्णतः सर्वज्ञ नहीं होता—उसे सूचनाओं, सुझावों और संवाद की आवश्यकता होती है।
समाज सदैव विविध विचारों से युक्त होता है। सभी लोग एक दृष्टिकोण नहीं रखते। कुछ लोग सक्रिय रूप से अधार्मिक प्रवृत्तियों में संलग्न होते हैं, कुछ धर्मनिष्ठ होते हैं, और बहुसंख्य जन साधारणतः प्रमाद में लिप्त रहते हैं—उन्हें बस अपना स्वार्थ दिखता है। यह समाज का सामान्य स्वरूप है, जिसे हम नकार नहीं सकते। परंतु इसी में से एक छोटी-सी सतर्क और सजग धारा भी उठ सकती है, जो समय के साथ समाज को दिशा देती है।
लेकिन जब हमें समाज में बदलाव लाना है, तो यह कार्य धर्मनिष्ठ और सत्यप्रवण लोगों को ही करना होगा। यही वे लोग हैं, जो समाज में नैतिक चेतना और जागरूकता पैदा कर सकते हैं। ऐसे लोग समाज में दया, करुणा, सत्य, और धर्म का प्रचार कर सकते हैं। इसके लिए हमें धर्मनिष्ठ जनों की संख्या बढ़ानी होगी, ताकि वे समाज के प्रमादनिष्ठ लोगों को दिशा दे सकें।
कुटुम्ब प्रबोधन, अर्थात् परिवार के प्रत्येक सदस्य को संस्कार, संस्कृति, और धर्म के प्रति जागरूक करना, समाज में परिवर्तन लाने की नींव है। यह प्रक्रिया समाज के प्रत्येक स्तर पर प्रभाव डालने के लिए आवश्यक है। परिवार, समाज का सबसे छोटा और प्रभावी इकाई है, जहाँ से संस्कार और मूल्य प्रणाली का बीजारोपण होता है। जब एक परिवार अपने कर्तव्यों, धर्म, और संस्कृति के प्रति जागरूक होता है, तो वह समाज में सकारात्मक परिवर्तन की दिशा में अग्रसर होता है।
लेकिन, केवल कुटुम्ब प्रबोधन से समाज में व्यापक परिवर्तन संभव नहीं है। इसके लिए नेतृत्व प्रबोधन की आवश्यकता है। नेतृत्व प्रबोधन का तात्पर्य है, समाज के उन व्यक्तियों को जागरूक करना, जो समाज में नेतृत्व की भूमिका निभाते हैं — चाहे वह राजनीतिक नेता हों, प्रशासनिक अधिकारी हों, या समाजिक कार्यकर्ता हों। इन व्यक्तियों का विचारशील और संस्कारित होना समाज में व्यापक परिवर्तन ला सकता है।
नेतृत्व प्रबोधन के माध्यम से, हम समाज के निर्णय-निर्माण प्रक्रिया में सुधार ला सकते हैं। जब नेता और अधिकारी अपने निर्णयों में धर्म, संस्कृति, और समाज के हितों को प्राथमिकता देंगे, तो समाज में समृद्धि और संतुलन आएगा। यह प्रक्रिया समाज के प्रत्येक सदस्य को अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियों के प्रति जागरूक करती है, जिससे समाज में सामूहिक जागरूकता और जिम्मेदारी की भावना उत्पन्न होती है।
इस प्रकार, कुटुम्ब प्रबोधन से प्रारंभ होकर, नेतृत्व प्रबोधन तक का मार्ग समाज में स्थायी और सकारात्मक परिवर्तन की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। यह प्रक्रिया समाज के प्रत्येक स्तर पर जागरूकता और जिम्मेदारी की भावना को प्रोत्साहित करती है, जिससे समाज में संतुलन, समृद्धि, और सद्भाव की स्थापना होती है।
समाज में विचारधाराओं की विविधता हमेशा रहेगी, लेकिन हमें यह याद रखना होगा कि जो लोग अपनी संस्कृति और धर्म से जुड़े हुए हैं, वही समाज में सही दिशा दिखाने में सक्षम होंगे। यदि हम उन्हें मार्गदर्शन देने के लिए तैयार नहीं हैं, तो फिर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि परिवर्तन के बिना हमारा समाज और राष्ट्र कभी पुनर्निर्मित नहीं हो सकता।
✍️दीपक कुमार द्विवेदी
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