हमारी विचारधारा: सनातनी हिंदुत्व का वैचारिक घोष

हम न तो पश्चिम के राइट विंग की विचारधारा में विश्वास करते हैं, न ही वामपंथी लेफ्ट विंग के विचारों में। हमारी विचारधारा सनातनी है — हिंदुत्व के उस स्वरूप में रची-बसी जो आत्मबोध कराती है, हमें 'स्व' के साक्षात्कार का मार्ग दिखाती है। हर सनातनी को चाहिए कि वह राइट-विंग, लेफ्ट-विंग, राष्ट्रवाद, पूंजीवाद, समाजवाद जैसी पश्चिमी अवधारणाओं के मोहजाल से बाहर निकले और अपने मूल स्वरूप को पहचाने — वह कौन है? उसका अस्तित्व क्या है? उसका स्वधर्म क्या है? हमें अब विचारधाराओं के वाद-विवाद में उलझने की नहीं, स्वधर्म के अनुसंधान की आवश्यकता है। बीते 80 वर्षों में हमने पश्चिमी मत-प्रणालियों की चमक-दमक से मोहित होकर अपने ही सनातन चिंतन को विस्मृत कर दिया है। हमने उसे न तो जानने का प्रयास किया, न समझने का।"

गत ८० वर्षों में भारत का वैचारिक विमर्श पाश्चात्य मतों के प्रभाव में रहा, जिसके कारण हम अपनी मौलिक हिन्दू विचारधारा से विमुख होते गए। हमने न तो उसे समझने का प्रयत्न किया, न ही उसे व्यवहार में उतारने का साहस दिखाया। उदाहरणार्थ, 'राष्ट्रवाद' शब्द को लें—पश्चिम में राष्ट्र को मात्र एक भौगोलिक सीमा या राजनीतिक इकाई माना जाता है, जबकि भारतीय दृष्टिकोण में "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी" के भाव से राष्ट्र मातृरूप में प्रतिष्ठित होता है। हमारे लिए राष्ट्र ‘मातृभूमि’ है, जिसकी आराधना ‘राष्ट्रभक्ति’ के रूप में होती है। ‘राष्ट्रवाद’ जैसे शब्द हमारे सांस्कृतिक और दार्शनिक सन्दर्भ में अर्थहीन हैं।

इसी प्रकार 'राइट' और 'लेफ्ट' की राजनीतिक अवधारणाएं भी यूरोपीय राजदरबार की बैठकों की परंपरा से उत्पन्न हुई हैं। जो राजा के पक्ष में बैठते वे 'राइट' कहे गए और जो विरोध में, वे 'लेफ्ट'। किन्तु हमारे यहाँ विचारधारा किसी व्यक्ति, ग्रंथ या सत्ता के समर्थन या विरोध से नहीं निर्धारित होती। हम धर्म और अधर्म के दो स्पष्ट पथों में विश्वास रखते हैं। न कोई तीसरा मार्ग है, न ही किसी मध्यवर्ती भ्रम का स्थान। हमारे यहाँ ब्राह्मण परंपरा को जितना महत्व है, श्रमण परंपरा को भी उतना ही स्थान प्राप्त है।

हमारे यहां किसी राजा, व्यक्ति, पुस्तक या वाद के आधार पर किसी विचारधारा की तय नहीं होती। हमारे यहां केवल दो मार्ग हैं — धर्म और अधर्म। सनातन धर्म का तात्पर्य मात्र किसी पंथ, मत या सम्प्रदाय से नहीं है, अपितु वह एक ऐसा सार्वकालिक और सार्वदेशिक चिंतन है जो विरोधी विचारों को भी समुचित स्थान देने का साहस और उदारता रखता है। यही कारण है कि जहां हमारी ब्राह्मण परंपरा को स्थान प्राप्त है, वहीं श्रमण परंपरा को भी समान प्रतिष्ठा मिली है। इसीलिए कहा गया है कि सनातन धर्म का एक अर्थ यह भी है — "वह परंपरा जो विरोधाभासी विचारों को भी स्वीकार कर सके, समाहित कर सके।"
इस बृहद् धर्मचक्र में वेद-प्रतिपादित षड्दर्शन ही नहीं, अपितु अवैदिक मतधाराएं जैसे बौद्ध, जैन और चार्वाक जैसे दर्शन भी स्थान पाते हैं। इनमें गहन वैचारिक प्रतिस्पर्धा रही, खंडन-मंडन और शास्त्रार्थ होते रहे, किंतु कभी यह मतभेद रक्तरंजित संघर्ष में परिवर्तित नहीं हुआ। किसी मत, मार्ग या उपासना-पद्धति को मानने या न मानने पर किसी की हत्या नहीं हुई। यह हमारे सनातनी चिंतन की सहिष्णुता, समदर्शिता और तात्त्विक उदारता का प्रमाण है। 

अब्राह्मिक पंथों की तरह हमारी विचारधारा ‘मज़हब’ नहीं है, जिसमें 'मानो या मरो' का सिद्धांत चलता हो। हमारी संस्कृति समावेशी है—वह प्रत्येक को अपनी पूजा-पद्धति, मार्ग और चिंतन की स्वतंत्रता प्रदान करती है। जब हमारी अवधारणाएँ धरती-आकाश की भांति भिन्न हैं, तो हम स्वयं को ‘राष्ट्रवादी’, ‘दक्षिणपंथी’ या ‘वामपंथी’ क्यों कहते हैं? क्यों हम पाश्चात्य चश्मे से अपने सनातन धर्म को देखने का भ्रम पालते हैं?

पूंजीवाद और समाजवाद दोनों ही केंद्रीकृत व्यवस्थाओं के सिद्धांत पर चलती हैं। एक में सम्पत्ति मुट्ठीभर पूंजीपतियों के हाथों में सिमट जाती है, दूसरे में सम्पूर्ण सत्ता सरकारी तंत्र और बाबुओं के अधीन हो जाती है। किन्तु सनातनी हिन्दू आर्थिक चिंतन विकेंद्रीकरण पर आधारित है, जहाँ परिवार समाज की प्राथमिक इकाई है और राजा अंतिम। यह व्यवस्था समाज के प्रत्येक वर्ग को उद्यम, प्रतिस्पर्धा और समान अवसर उपलब्ध कराती है। हम उसी परंपरा से आते हैं जहाँ पहली रोटी गाय के लिए और अंतिम कुत्ते के लिए सुरक्षित होती है। जहाँ परिवार में कमाने वाला सबके लिए कमाता है और संकट के समय सभी साथ खड़े होते हैं।

हम ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ के मन्त्र को जीने वाले लोग हैं। फिर क्यों हम पाश्चात्य प्रतिमानों—राष्ट्रवाद, पूंजीवाद, समाजवाद आदि—को अपनाकर अपने धर्म से विचलित होते हैं? क्यों नहीं गर्व से कहते कि हम सनातनी हैं, हमारी विचारधारा सनातन हिन्दुत्व की है, हमारा सामाजिक और आर्थिक चिंतन भी उसी सनातन परंपरा पर आधारित है?

हमारी विचारधारा प्रकृति के त्रिगुणात्मक सिद्धांत के अनुसार सभी को उसके गुण, कर्म और स्वभाव के अनुरूप समान अवसर प्रदान करती है। वह किसी पर विचार या जीवनशैली थोपने में विश्वास नहीं रखती। धर्म वह है जो धारण करने योग्य है। अतः हमें यह निश्चित करना है कि हम किस मार्ग पर चलना चाहते हैं—धर्म का या अधर्म का।

मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षण बताए गए हैं—

"धृति: क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌।।" (मनुस्मृति ६.९२)

अर्थात—धैर्य, क्षमा, संयम, अस्तेय, बाह्य-आंतरिक पवित्रता, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य और अक्रोध—ये दस धर्म के लक्षण हैं।

हमारे धर्मशास्त्रों और लोक परंपराओं ने धर्म की अत्यंत स्पष्ट व्याख्या की है। एक पीपल की पूजा करने वाला व्यक्ति भी निराकार ब्रह्म को मान सकता है। यह समदर्शी, समावेशी सनातन धर्म है। फिर भी यदि हम स्वयं को 'दक्षिणपंथी', 'वामपंथी', 'पूंजीवादी', 'समाजवादी', या 'राष्ट्रवादी' कहते हैं, तो वह हमारे अपने धर्म के विरुद्ध आचरण होगा।

हमें गर्व से कहना चाहिए कि हमारी विचारधारा सनातनी हिन्दुत्व की है—यह न केवल धार्मिक, बल्कि आर्थिक, सामाजिक और दार्शनिक दृष्टि से भी विश्व की सर्वश्रेष्ठ विचारधारा है। यही विचारधारा है जो हमें दिग्भ्रमित नहीं करती, वरन् आत्मदर्शन कराती है। अब निर्णय हमें करना है—क्या हम इस धर्म को अपनाएँगे या अधर्म के आयातित मार्गों पर भटकते रहेंगे।

✍️ दीपक कुमार द्विवेदी

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