आप बंगाल जाइये तो आपको वहां की हर दूसरी गली या मोहल्ले का नाम रवीन्द पल्ली, नजरूल पल्ली, निवेदिता पल्ली, शारदा पल्ली, विवेकानंद पल्ली, रामकृष्ण पल्ली, बंकिम पल्ली मिलेगा।

आप बंगाल जाइये तो आपको वहां की हर दूसरी गली या मोहल्ले का नाम रवीन्द पल्ली, नजरूल पल्ली, निवेदिता पल्ली, शारदा पल्ली, विवेकानंद पल्ली, रामकृष्ण पल्ली, बंकिम पल्ली मिलेगा। ऐसा ही पंजाब में है, महाराष्ट्र में है पर ऐसा कोई गौरव बोध आपको बिहार और कुछ हद तक तक पूर्वांचल में कहीं भी नहीं दिखेगा। हमारे इतने महापुरुष हैं पर एक बाबू कुंवर सिंह को छोड़कर बाकी किसी के लिए किसी ने अंदर कोई इतिहास बोध है ही नहीं। अशोक या चंद्रगुप्त वगैरह के लिए है भी तो वो इसलिए ताकि उनकी जातीय कुंठा तृप्त हो सके। फैक्ट ये भी है कि संन्यासी विद्रोह बिहार से ही शुरू हुआ था, जिसे बंकिम बाबू ने आंनद मठ में लिखा है।

'संस्कृति' और 'अतीत गौरव' के बोध का ये लोप एक अर्थ में अच्छा इसलिए है; क्योंकि बिहारी इस कारण से प्रांतवाद की घृणित मानसिकता से भरे हुए नहीं हैं पर इसका एक नुकसान भी है कि इसने बिहारियों के अंदर बहुत हद तक सांस्कृतिक खालीपन भर दिया है; जो बिहारियों के अंदर से कभी अश्लील गीत तो कई बार उदंड बिहारीपन के रूप में बाहर आता है।

इसका कारण बहुत हद तक ऐसे लोग और विशेषकर बॉलीवुड है, जिसने एक मसखरे नेता के बोलने के तरीके को "बिहारी भाषा" के रूप में प्रचारित किया जो हमारी भाषा है ही नहीं।

जिम्मेदार तो दिल्ली में भाजपा के पूर्वांचली नेता रहे एक "नक्के गवैया" भी हैं जिसने अपनी फूहड़ फिल्मों और गानों में ये दिखाया कि मुम्बई गया हुआ बिहारी कितना बेबकूफ होता है जिससे ऊँची बिल्डिंग देखने के एवज भी पैसे ऐठ लिए जाते हैं।

इसलिए आज ये जरूरी हो गया कि बिहारी सुदूर अतीत में जाकर अपने गौरव बोध के सूत्र तलाश करें और उससे अपने सांस्कृतिक खालीपन को भरे न कि फूहड़ और अश्लील गीतों से।

हां, सुधार की ये प्रकिया बिहार के और बिहारियों के अंदर से उठनी चाहिए, बाकी सलाह देने वाले इसलिए अच्छे नहीं लगते क्योंकि उनके अंदर ईमानदार समीक्षा कम और क्षेत्रीय घृणा का उबाल अधिक नज़र आता है।

Abhijeet Singh

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