श्रीजगन्नाथजी कथा : राजा इन्द्रद्युम्न श्रेष्ठ प्रजा पालक राजा थे। प्रजा उन्हें बहुत प्रेम करती थी। प्रजा सुखी और सन्तुष्ट थी।

. 🌸श्रीजगन्नाथजी स्थापना🌸

 राजा इन्द्रद्युम्न श्रेष्ठ प्रजा पालक राजा थे। प्रजा उन्हें बहुत प्रेम करती थी। प्रजा सुखी और सन्तुष्ट थी। 
          दैवयोग से इंद्रद्युम्न के मन में एक कामना प्रगट हुई कि वह एक अद्वितीय मन्दिर का निर्माण कराये । 
        
          राज पुरोहित के सुझाव पर शुभ मुहूर्त में पूर्वी समुद्र तट पर एक विशाल मन्दिर के निर्माण का निश्चय हुआ। वैदिक-मंत्रोचार के साथ मन्दिर निर्माण का श्रीगणेश हुआ।
          राजा इंद्रद्युम्न के मन्दिर बनवाने की सूचना शिल्पियों को हुई। सभी इसमें योगदान देने पहुँचे। दिन रात मन्दिर के निर्माण में जुट गए। कुछ ही वर्षों में मन्दिर बनकर तैयार हुआ।
          सागर तट पर एक विशाल मन्दिर का निर्माण तो हो गया , किंतु मुर्ति किस भगवान की रखी जाए।
          राजा ने भगवान से विनती की, "प्रभु ! आपके किस स्वरूप को इस मन्दिर में स्थापित करूँ इसकी चिन्ता से व्यग्र हूँ। मार्ग दिखाइए। 

 उस रात राजा ने स्वप्न देखा। उन्हें देव वाणी सुनाई दी, "राजन ! यहाँ निकट में ही भगवान श्री कृष्ण का विग्रह रूप है। तुम उन्हें खोजने का प्रयास करो, तुम्हें दर्शन मिलेंगे।"
          
          भगवान के विग्रह का पता लगाने की उत्तरदायित्व राजा इंद्रद्युम्न ने चार विद्वान पण्डितों को सौंप दिया। प्रभु इच्छा से प्रेरित होकर चारों विद्वान चार दिशाओं में निकले।
          उन चारों में एक विद्वान थे विद्यापति। वह चारों में सबसे कम उम्र के थे। प्रभु के विग्रह की खोज के दौरान उनके साथ बहुत से अलौकिक घटनाएँ हुई।
          पण्डित विद्यापति पूर्व दिशा की ओर चले। कुछ आगे चलने के बाद विद्यापति उत्तर की ओर मुडे तो उन्हें एक जंगल दिखाई दिया। वन भयावह था। विद्यापति श्री कृष्ण के उपासक थे। उन्होंने श्री कृष्ण का स्मरण किया और राह दिखाने की प्रार्थना की।
          भगवान श्रीकृष्ण की प्रेरणा से उन्हें राह दिखने लगी। प्रभु का नाम लेते वह वन में चले जा रहे थे। जंगल के मध्य उन्हें एक पर्वत दिखाई दिया। पर्वत के वृक्षों से संगीत की ध्वनि सा सुरम्य गीत सुनाई पड़ रहा था।
          विद्यापति संगीत के जानकार थे। उन्हें वहाँ मृदंग, बंसी और करताल की मिश्रित ध्वनि सुनाई दे रही थी। यह संगीत उन्हें दिव्य लगा। संगीत की लहरियों को खोजते विद्यापति आगे बढ़ चले।
          वह जल्दी ही पहाड़ी की चोटी पर पहुँच गए। पहाड़ के दूसरी ओर उन्हें एक सुन्दर घाटी दिखी जहाँ भील नृत्य कर रहे थे। विद्यापति उस दृश्य को देखकर मंत्र मुग्ध थे। सफर के कारण थके थे पर संगीत से थकान मिट गयी और उन्हें नींद आने लगी।

 अचानक एक बाघ की गर्जना सुनकर विद्यापति घबरा उठे। बाघ उनकी ओर दौड़ता आ रहा था। 
          बाघ विद्यापति पर आक्रमण करने ही वाला था कि तभी एक स्त्री ने बाघ को पुकारा, 'बाघा' उस आवाज को सुनकर बाघ मौन खडा हो गया। स्त्री ने उसे लौटने का आदेश दिया तो बाघ लौट पड़ा।
          
           वह भीलों के राजा विश्वावसु की इकलौती पुत्री ललिता थी 

ललिता विद्यापति के पास आई और पूछा, "आप कौन हैं और भयानक वन में आप कैसे पहुँचे ? आपके आने का प्रयोजन बताइए ताकि मैं आपकी सहायता कर सकूँ।
           "विप्रवर ! आप मेरे साथ चलें। जब आप स्वस्थ हों तब अपने लक्ष्य की ओर प्रस्थान करें।"
           विद्यापति भीलों के राजा विश्वावसु से मिले और उन्हें अपना परिचय दिया। विश्वावसु विद्यापति जैसे विद्वान से मिलकर बड़े प्रसन्नता हुए।
          विश्वावसु के अनुरोध पर विद्यापति कुछ दिन वहाँ अतिथि बनकर रूके। वह भीलों को धर्म और ज्ञान का उपदेश देने लगे। उनके उपदेशों को विश्वावसु तथा ललिता बड़ी रूचि के साथ सुनते थे। ललिता के मन में विद्यापति के लिए अनुराग पैदा हो गया।
 
           विद्यापति के मन में भी ललिता के प्रति प्रेम भाव पैदा हो गया। विश्वावसु ने प्रस्ताव रखा की विद्यापति ललिता से विवाह कर ले। विद्यापति ने इसे स्वीकार कर लिया।
          कुछ दिन दोनों के सुखमय बीते। ललिता से विवाह करके विद्यापति प्रसन्न तो थे पर जिस महत्व पूर्ण कार्य के लिए वह आए थे, वह अधूरा था। यही चिन्ता उन्हें बार बार सताती थी।
           विद्यापति को पता चली। विश्वावसु हर रोज सवेरे उठ कर कहीं चला जाता था और सूर्योदय के बाद ही लौटता था। कितनी भी विकट स्थिति हो उसका यह नियम कभी नहीं टूटता था।
          विश्वावसु के इस व्रत पर विद्यापति को आश्चर्य हुआ। उनके मन में इस रहस्य को जानने की इच्छा हुई। आखिर विश्वावसु जाता कहाँ है। एक दिन विद्यापति ने ललिता से इस सम्बन्ध में पूछा। 
           
          ललिता ने कहा, यह हमारे कुल का रहस्य है जिसे किसी के सामने खोला नहीं जा सकता परन्तु आप मेरे पति हैं और मैं आपको कुल का पुरुष मानते हुए जितना सम्भव है उतना बताती हूँ।
          यहाँ से कुछ दूरी पर एक गुफा है जिसके भीतर हमारे कुल देवता हैं। उनकी पूजा हमारे सभी पूर्वज करते आए हैं। यह पूजा निर्बाध चलनी चाहिए। उसी पूजा के लिए पिता जी रोज सुबह नियमित रूप से जाते हैं।"
          विद्यापति ने ललिता से कहा, "वह भी उनके कुल देवता के दर्शन करना चाहते हैं।" "
    
          ललिता ने पिता से कही। वह क्रोधित हो गए। ललिता ने कहा, "मैं आपकी अकेली सन्तान हूँ। आपके बाद देवता के पूजा का दायित्व मेरा होगा। इसलिए मेरे पति का यह अधिकार बनता है क्योंकि आगे उन्हें ही पूजना होगा।"

 विश्वावसु इस तर्क के आगे झुक गए। वह बोले- गुफा के दर्शन किसी को तभी कराए जा सकते हैं जब वह भगवान की पूजा का दायित्व अपने हाथ में ले ले। विद्यापति ने दायित्व स्वीकार किया तो विश्वावसु देवता के दर्शन कराने को राजी हुए।
          दूसरे दिन सूर्योदय से पूर्व विद्यापति की आँखों पर पट्टी बाँधकर विश्वावसु उनका दाहिना हाथ पकड़ कर गुफा की तरफ निकले। विद्यापति ने मुट्ठी में सरसों रख लिया था जिसे रास्ते में छोड़ते हुए गए।
          गुफा के पास पहुँचकर विश्वावसु रुके और गुफा के पास पहुँच गए। विश्वावसु ने विद्यापति के आँखों की काली पट्टी खोल दी। उस गुफा में नीले रंग का प्रकाश चमक उठा। हाथों में मुरली लिए भगवान श्री कृष्ण का रूप विद्यापति को दिखाई दिया।
          विद्यापति आनन्द मग्न हो गए। उन्होंने भगवान के दर्शन किए। दर्शन के बाद तो जैसे विद्यापति जाना ही नहीं चाहते थे। पर विश्वावसु ने लौटने का आदेश दिया। फिर उनकी आँखों पर पट्टी बाँधी और दोनों लौट पड़े।
       
          विद्यापति को आभास हो गया कि महाराज ने स्वप्न में जिस प्रभु विग्रह के बारे में देव वाणी सुनी थी, वह इसी मूर्ति के बारे में थी। विद्यापति विचार करने लगे कि किसी तरह इसी मूर्ति को लेकर राजधानी पहुँचना होगा।
       
       विद्यापति ने ललिता से कहा कि वह अपने माता-पिता के दर्शन करने के लिए जाना चाहते हैं। 
          विश्वावसु ने उसके लिए घोड़े का प्रबन्ध किया। अब तक सरसों के दाने से पौधे निकल आए थे। उनको देखता विद्यापति गुफा तक पहुँच गया। उसने भगवान की स्तुति की और क्षमा प्रार्थना के बाद उनकी मूर्ति उठाकर झोले में रख ली।
           वह राजधानी पहुँच गये और दिव्य प्रतिमा राजा को सौंप दी और पूरी कथा सुनायी। राजा ने बताया कि उसने कल एक स्वप्न देखा कि सुबह सागर में एक कुन्दा बहकर आएगा।
          उस कुन्दे से भगवान की मूर्ति बनवा लेना  
         
दूसरे दिन सूर्योदय से पूर्व राजा विद्यापति तथा मंत्रियों को लेकर सागर तट पर पहुँचे। स्वप्न के अनुसार एक बड़ा कुन्दा पानी में बहकर आ रहा था। सभी उसे देखकर प्रसन्न हुए। दस नावों पर बैठकर राजा के सेवक उस कुन्दे को खींचने पहुँचे।
          मोटी-मोटी रस्सियों से कुन्दे को बाँधकर खींचा जाने लगा लेकिन कुन्दा टस से मस नहीं हुआ। और लोग भेजे गए लेकिन सैकड़ों लोग और नावों का प्रयोग करके भी कुन्दे को हिलाया तक नहीं जा सका।
           सेनापति ने सेना कुन्दे को खींचने के लिए भेज दी। सारे सागर में सैनिक ही सैनिक नजर आने लगे लेकिन सभी मिल कर कुन्दे को अपने स्थान से हिला तक न सके। 
          
अचानक राजा ने काम रोकने का आदेश दिया। राजा ने विद्यापति से कहा तुम जिस दिव्य मूर्ति को अपने साथ लाए हो , उससे तुरन्त भेंट करके क्षमा मांगनी होगी। बिना उसके स्पर्श किए यह कुन्दा आगे नहीं बढ सकेगा।
          राजा इंद्रद्युम्न और विद्यापति विश्वावसु से मिलने पहुँचे। राजा ने पर्वत की चोटी से जंगल को देखा तो उसकी सुन्दरता को देखता ही रह गया। 
         राजा इंद्रद्युमन विश्वावसु के पास आए विश्वावसु ने राजा को आसन दिया। राजा ने उस विश्वावसु को पूरी बात बता कर कहा कि आखिर क्यों यह सब करना पड़ा। फिर राजा ने उनसे अपने स्वप्न और फिर जगन्नाथ पुरी में सागर तट पर मन्दिर निर्माण की बात कह सुनाई।
           
          ईश्वर द्वारा भेजे गए लकड़ी के कुन्दे से बनी मूर्ति के भीतर हम इस दिव्य मूर्ति को सुरक्षित रखना चाहते हैं। अपने कुल की प्रतिमा को पुरी के मन्दिर में स्थापित करने की अनुमति दो। उस कुन्दे को तुम स्पर्श करोगे तभी वह हिलेगा।"
           राजा सपरिवार विश्वावसु को लेकर सागर तट पर पहुँचे। विश्वावसु ने कुन्दे को छुआ। छूते ही कुन्दा अपने आप तैरता हुआ किनारे पर आ लगा। राजा के सेवकों ने उस कुन्दे को राज महल में पहुँचा दिया।
          अगले दिन मूर्तिकारों और शिल्पियों को राजा ने बुलाकर मंत्रणा की कि आखिर इस कुन्दे से कौन सी देवमूर्ति बनाना शुभ दायक होगा। 
           उसी समय वहाँ एक बूढा आया। उसने राजा से कहा, "इस मन्दिर में आप भगवान श्री कृष्ण को उनके भाई बलभद्र तथा बहन सुभद्रा के साथ विराज मान करें। इस दैवयोग का यही संकेत है।"

           उस बूढ़े ने कहा कि मैं इस कला में कुशल हूँ। मैं इस पवित्र कार्य को पूरा करूँगा और मूर्तियाँ बनाऊँगा। पर मेरी एक शर्त है।
          राजा प्रसन्न हो गए और उनकी शर्त पूछी। बूढ़े शिल्पी ने कहा, "मैं भगवान की मूर्ति निर्माण का काम एकान्त में करूँगा। मैं यह काम बन्द कमरे में करूँगा। कार्य पूरा करने के बाद मैं स्वयं दरवाजा खोल कर बाहर आऊँगा। इस बीच कोई मुझे नहीं बुलाए।"
          "
          राज मन्दिर के एक विशाल कक्ष में उस बूढ़े शिल्पी ने स्वयं को 21 दिनों के लिए बन्द कर लिया और काम शुरू कर दिया। भीतर से आवाजें आती थीं। महारानी गुंडीचा देवी दरवाजे से कान लगाकर अक्सर छेनी-हथौड़े के चलने की आवाजें सुना करती थीं।
          महारानी रोज की तरह कमरे के दरवाजे से कान लगाए खड़ी थीं। 15 दिन बीते थे कि उन्हें कमरे से आवाज सुनायी पडनी बन्द हो गई। जब मूर्ति कार के काम करने की कोई आवाज न मिली तो रानी चिन्तित हो गईं।
          उन्हें लगा कि वृद्ध है,कहीं उसके साथ कुछ अनिष्ट न हो गया हो। व्याकुल होकर रानी ने दरवाजे को धक्का देकर खोला और भीतर झाँककर देखा।
          महारानी गुंडीचा देवी ने इस तरह मूर्ति कार को दिया हुआ वचन भंग कर दिया था। मूर्ति कार अभी मूर्तियाँ बना रहा था। परन्तु रानी को देखते ही वह अदृश्य हो गए। मूर्ति निर्माण का कार्य अभी तक पूरा नहीं हुआ था। हाथ-पैर का निर्माण पूर्ण नहीं हुआ था।

          मूर्तियाँ अधूरी ही रह गईं। इसी कारण आज भी यह मूर्तियाँ वैसी ही हैं। उन प्रतिमाओं को ही मन्दिर में स्थापित कराया गया।

🔥⚔️🔥जय श्री राम 🔥⚔️🔥

सपना सिंह जी 

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