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बात पुराने समय की है जब दिसंबर की ठंडी शुरू होती थी और दही आसानी से नही जमती थी
फिर दादी और नानी एक बड़े बर्तन में दूध को उबलती
उबलने के लिए विशेष बर्तन जो मट्टी का बना होता था, खास तौर पे मट्टी का मटका
और अब इसे एक गोहरी ( उपले) की भट्टी पर रखा जाता
गोहरी की भट्टी की आंच एकदम धीमी होती और इस आंच को कम रखना भी अपने आप में एक कला होती थी जो की तजुर्बे के साथ ही आती थी, किसी के पास कोई सेट फॉर्मूला नही होता था इसे सही से करने का
इसी आंच पर दूध सुबह से लेके शाम तक पकता और पकते पकते लाल हो जाता
और शाम को भट्टी की गुनगुनाहट में इसमें दही का जमान डाला जाता और इसे ऐसे ही छोड़ देते हैं पूरी रात
और सुबह जो चीज निकल के आती है उसे बोलते हैं सजाव दही
आज को जनरेशन घटिया पैकेट वाले दूध और पैकेट वाले दही के आगे इसे नही जानेंगे, इनका दुर्भाग्य है की इतने बेहतरीन स्वाद वाले खाने को इन्होंने कभी चखा नही
जिसके स्वाद को सिर्फ महसूस किया जा सकता है, बताया नही जा सकता
अगर आपने कभी खाई है तो आप किस्मत वाले हैं की आपने एक धरोहर को टेस्ट किया है
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