Critical Race Theory से Caste Politics तक: भारत की आत्मा पर हमला

चौमासे का विज्ञान क्या है ? जानने के लिए पढ़ें पूरा आलेख

           
  देवशयनी एकादशी से आरम्भ होकर  देवउठनी एकादशी तक के मध्य का कालखण्ड हमारे लोक परम्परा में "चौमासा" के रूप में जाना जाता है।(वैसे चौमासा का आशय, तीन ऋतुओं के आधार पर भी देखा जाता है, परन्तु विशिष्ट प्रयोजनार्थ में)
यह कालखण्ड भीषण गर्मी से जहाँ राहत देता है, वही जीवन की तमाम आपाधापियों से निजात दिलाकर सभी के भीतर एक नई उमंग भरने वाला भी होता है। कृषक समुदाय खरीफ की फसलों की बुवाई की तैयारी जहाँ आरम्भ करते हैं, वही समूचे कालखण्ड में खरीफ की फसल भी तैयार हो जाती है। अर्थात यह चौमासा जहाँ खुशियों से आरम्भ होता है, वही अपार खुशियों की सौगात देता हुआ समाप्त भी होता है।
इसलिए इसकी समस्त गृहस्थों के लिए सबसे अधिक महत्ता गायी जाती है।

            भारत "गाँव में बसता है" की उक्ति का आशय यह नहीं, की भारत गाँव ही है, बल्कि इसका आशय यह है कि, "भारतीय सभ्यता का यथार्थ दर्शन ग्राम में मिलता है, प्रत्येक "ग्राम" अपने आप में एक स्वतंत्र भारत हैं। भारत शब्द का कोई "स्थलीय विवेचन नहीं, बल्कि भारत शब्द का एक 'विशिष्ट चारित्रिक और नैतिक' विवेचन है। जिसका दर्शन प्रत्येक ग्राम में सहज होता है।
(इसलिए हमारी संस्कृति में धर्म राष्ट्र की धूरी कहा जाता है।)

चौमासे में, जब समस्त आपाधापी(भागदौड़/यात्रा/युद्ध/परिभ्रमण आदि) स्थिर हो जाती है, जब सब अपने-अपने वतन(गाँव) को लौट जाते हैं, और जो लौट नहीं पाते, वे जहाँ हैं वही अपना स्थान चौमासे तक के लिए सुनिश्चित कर लेते हैं। तब क्या कभी आपने सोचा कि, फिर "सभी की दैनिकचर्या का निर्वाह कैसे होता है?"
चूँकि हमारी सभ्यता में #अर्थ की उत्पादकता "संस्कृति व्यवसाय(प्राथमिक)और व्यवसाय से व्यापार(द्वितीयक....) से जानी जाती है।

बरसात के कारण जब सर्वत्र व्यापार(द्वितीयक साधन) आदि बाधित हो जाते हैं, तब भी दैनिकचर्या में #अर्थाभाव न हो, ऐसी प्रणाली की आवश्यकता ज्ञात होती है।
और इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए,
"जिस प्रकार एक माँ विषम परिस्थिति में अपने बच्चों के पालन-पोषण को बड़ी सहजता से न केवल पूरा करती है, बल्कि उसके परवरिश में किसी भी प्रकार का कोई व्यवधान न हो, इसका भी सम्यक ध्यान रखती है।
उसी प्रकार,  
              चौमासे का समूचा खण्ड  मातारानी को समर्पित जाना जाता है। देवशयनी एकादशी से  देव प्रधान्य समस्त शुभाशुभ(जो शास्त्रीय परम्परा अन्तर्गत जाने जाते हैं) कर्म का बाध्/निषेध हो जाता है, तब "माँ जगदम्बिका" शास्त्र_आचरण रूपी सात्त्विक कर्मों से च्युत हुए अपने पुत्रों को लोक परम्परा रूपी "अभीष्ट कर्मों में संलग्न कर देती हैं" उन सभी "विधि वा निषेध" की मर्यादा से हटाकर "जिस प्रकार कितना भी धूल-धूसरित होकर एक बालक अपने माँ की ओर आँचल की छाँव के लिए बढ़ता है, और माँ बिना किसी बात की परवाह किये सहर्ष गले से लगा लेती है, उसी प्रकार इस मातारानी के काल रूपी चौमासे में "विधि वा निषेध" जो शास्त्रीय परम्परा में जानी गयी।

लोकार्थ प्रयोजनों में  कुटुम्ब_सम तारतम्यता और तन्मयता बनी रहे, इसलिए कौटुम्बिक निष्ठा को बलवती करने, और #लोकोक्त_निष्ठा को समृद्ध करने जैसे #पर्वों का इस चौमासे में व्यापक महत्व जाना गया है।
"गुरु पूर्णिमा से आरम्भ होते पर्व और हर्षोल्लास के दिन सावन माह के नाग पंचमी, तीज आदि से गुजरता हुआ भाद्रपद षष्टी से होकर आश्विन में मातारानी के नवरात्र को पार करके पुनः देवउठनी एकादशी पर समाप्त हो जाता है, और फिर आरम्भ हो जाती है, लोकार्थ बन्धनों के सीमा का अतिक्रमण करके विश्व भ्रमण से लेकर दूर-दराज व्यापार आदि का उपक्रम।


भरद्वाज नमिता 
जय श्री कृष्ण

टिप्पणियाँ