महाभारत के विवरण से सीधा अर्थ यह निकलता है कि भारत देश वर्णमाला यानी संस्कृति के मामले में पिछड़ा था और श्री गणेश की मदद से उसने संस्कृति यानी लिपि के क्षेत्र में कदम बढ़ाया था । भारतीय वर्णमाला के उद्भव के इतिहास पर काफी कम शोध हुए हैं ।प्रायः हम यही मान लेते हैं कि ब्राह्मी और देवनागरी ग्रीक लिपि से और ग्रीक लिपि सेमेटिक लिपि से विकसित हुई है ।लेकिन यदि ऐसा होता तो फिर पंचवर्गीय 25 वर्णों की कल्पना हम कैसे कर पाते ?
भारतीय वर्णों की परिकल्पना तक पहुंचने के लिए हमें गीतों की उदभावना को समझना चाहिए था । पुरानी पीढ़ी द्वारा नई पीढ़ियों तक अपने आदर्श ,अपनी परम्परा को पहुँचाने के माध्यम गीत ही थे जिन्हें वृत्त, वेद, सूक्त ,गीत, गीता,गायत्री आदि कहा जाता था।वृत्तों के संकलन को ही वृत्त संहिता और वेद संहिता कहा जाता था । विद् धातु की कल्पना काफी बाद की है ।
प्रश्न है कि गीतों को वृत्त क्यों कहा जाता था ?मेरी समझ से यह शब्द संस्कृत इत्र और आंग्ल ether के मूल का है । जिसतरह इत्र से सुगंध निकलती है , उसीतरह गीत भाव -सुगंध फैलाते हैं । इसी सुगंध को स्वर ,राग , ऋग् , सूक्त कहते थे । मुझे तो लगता है सुगंध शब्द सुगद् (गद् =बोलना) का अपभ्रंश है और सूक्त का ही पर्याय है ।
वस्तुतः इत्र के कई वर्ग थे , जैसे गो इत्र>गवित्र>घृत> घी ,ध्वनि इत्र यानी शब्द इत्र , अम्ल इत्र>अमृत । ध्वनि रूपी इत्र से निकलने वाली भाव -गंध को ही शब्दार्थ कहते थे।इसीलिए वृत्त शास्त्र को ही अर्थ शास्त्र भी कहते थे।
वृत्तों के प्राण स्वर होते थे जिन्हें उदात्त ,अनुदात्त ,उच्चरित ,अनुच्चरित ,घोष ,अघोष ,अल्पप्राण ,महाप्राण ,अंतस्थ ,ओष्ठ्य ,काकल्य ,मूर्धन्य, अनुनासिक आदि वर्गों में विभक्त किया जाता था । इन्हीं स्वरों के आधार पर रागों की पहचान होती थी ,जिन्हें संस्कृत में छंद और लैटिन मूल की भाषाओं में chant कहा जाता था ।ध्वनियों के वर्गीकरण की इस परम्परा के अनुकूल वर्णमाला की खोज लगातार चलती रही थी और अंततः देवनागरी के जन्म ने उनकी खोज को पूर्ण कर दिया था ।देवनागरी के चिह्न भले ही दूसरी लिपियों की मदद से विकसित किए गए ,पर देववाणी की ध्वनियाँ विशुद्ध भारतीय थीं ।
आप भारत की पश्चिमोत्तर सीमा पर पाए गए ध्वनि -चिह्नों के बारे में सुना है । अब लोग उन्हें पढ़ने में सक्षम नहीं हैं ।इसका कारण है चिह्नों की अधिकता । भारतीय उदात्त , अनुदात्त, स्वरित , उच्चरित ,अनुच्च,घोष ,अघोष , अंतस्थ ,महाप्राण , अल्पप्राण, काकल्य , वर्त्स्य,दन्त्य, मूर्द्धन्य,ओष्ठ्य आदि के रूप में ध्वनियों के लिए चिह्नों का प्रयोग करते थे ।धीरे धीरे चिह्नों को कम करने के प्रयास किए जाने लगे और तब ब्राह्मी और देवनागरी के चिह्न निर्धारित हुए ।
ध्वनि को स्वर कहते थे और स्वर का ही अपभ्रंश काव्यशास्त्र का रस शब्द है । रस सिद्धांत के विज्ञाता भरत मुनि ही माने जाते हैं ।उनकी कृति नाट्य शास्त्र थी । नाट्य शास्त्र को मैं शिक्षा शास्त्र का प्राण मानता हूं ।
नाट्य शास्त्र यानी नृत्य शास्त्र ।नृत्य ,गायन और वादन की सिद्धि यह थी कि पात्र अपनी शारीरिक और मानसिक चेष्टा को गीत के स्वरों के उतार, चढ़ाव ,ठहराव और भाव में लीन कर ले ।इसे स्वर सिद्धि >रस सिद्धि कहा जाता था । प्रत्येक शब्द को संगीत के सप्तस्वरों के अनुसार सात प्रकार से उच्चरित किया जाता था ।इतना ही उन्हें उनके कंठ्य, काकल्य , वर्त्स्य, दन्त्य, मूर्धन्य, ओष्ठय, अंतस्थ ,घोष ,अघोष आदि उच्चारण भेद भी थे । इसतरह आज की तरह क की सिर्फ क की सिर्फ कंठ्य ध्वनि नहीं थी , वरन् इसके वर्त्त्स्य, दंत्यआदि उच्चारण भी थे ।। शायद इसी वैविध्य के कारण हड़प्पा और मोहन जो दड़ॊ की लिपि को पढ़ने में सफलता नहीं मिली है ।
शुक्राचार्य की दुहिता से कच का गठबंधन नहीं हो सका था । शुक्राचार्य से आप क्या समझते हैं ? यह किसी मानव का नहीं ,असुरों की वर्णमाला का नाम था । वर्णमाला यानी वह अस्तित्व जिसे ग्रीकों ने cycle of sketcher कहा था। Sketcher यानी अक्षर और cycle यानी माला। Cycle of sketcher यानी अक्षर माला ।असुरों की अक्षरमाला में डॉट (.)का प्रयोग होता था। पर स्वरभेद को इन डॉट की मदद से अभिव्यक्त करना सम्भव नहीं था । इसीलिए कहा गया कि शुक्राचार्य की दुहिता से बृहस्पति पुत्र कच का गठबंधन नहीं हो सका । वस्तुतः असुर वर्णमाला के आधार पर खरोष्ठी लिपि का विकास किया गया था ताकि देववाणी को अंकित किया जा सके। लेकिन खरोष्ठी में देव वाणी को अंकित करने की क्षमता नहीं थी ।
जय श्रीकृष्ण
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