जगतगुरु आदि शंकराचार्य का तिरोधान भाग १५

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श्रंगेरी की परम्परा - आचार्य शंकर ने अन्तिम जीवन किस स्थान पर बिताया तथा सर्वज्ञपीठ पर अधिरोहण किस स्थान पर किया, यह एक विचारणीय प्रश्न है । जिस प्रकार शंकर के जीवनवृत्त के विषय में सर्वाश में सर्वत्र एकमत नहीं दीख पड़ता , उसी प्रकार उनके शरीरपात के विषय में प्राचीन काल से ही मतभेद चला आता है। हमने कश्मीर में सर्वज्ञपीठ पर आचार्य के अधिरोहण की जो बात उपर लिखी है , उसका आधार माधव कृत शंकर दिग्विजय ही है । अधिरोहण अन्तन्तर आचार्य ने अपने शिष्यों को भिन्न मठों में मठकार्य निरीक्षण के लिए भेजा दिया और स्वयं वहां से बद्रीनारायण की ओर चले गये । यह भी प्रसिद्ध निमित्त उनके आश्रम में गये और उनकी गुफा में उन्हीं के साथ कुछ दिन निवास किया दत्तात्रेय ने शंकर की उनकी विशिष्ट कार्य के लिए उनकी प्रचूर प्रशंसा की । इसके बाद वे यह वृत्तांत श्रृंगेरी पीठानुसारी ग्रन्थों में उपलब्ध होता है और अधिकांश संन्यासी लोग इस बात यति ने इस मत की पुष्टि की है । माधव ने इस घटना का उल्लेख किया है । संन्यासियों की यह दृढ़ धारणा है कि आचार्य ने अपना लौकिक कार्य समाप्त कर कैलाश पर्वत पर शरीर छोड़ा । 

चिद्विलास ने माधव के मत को तिरोधान के विषय में स्वीकृत किया है परन्तु अधिरोहण के विषय में उनका कहना है शंकराचार्य ने कांची में सर्वज्ञपीठ पर अधिरोहण किया था , काश्मीर में नहीं । माध्वाचार्य ने जिन दो श्लोकों में (१६।५१-५२)। शंकर के कश्मीर में सर्वज्ञ पीठा रोहण की घटना लिखी है , वे दोनों श्लोकों राज चूड़ामणि दीक्षित के शंकराभ्युदय के ही है ( ८/६८,६९) परन्तु शंकराभ्युदय में लिखा है कि यह घटना कांची में हुई थी कश्मीर में नहीं - यही दोनों में भेद है। 


माधव श० दि० सर्ग १६। ३३ -५४ 

दत्तात्रेय भुवनविनतु वीक्ष्य नत्वान्वगादीत् 
वृत स्वीयं सकलमपि तान्प्रेषितान् दिक्षु शिष्यान् 
सोऽपि श्रुत्वा मुनिपति दादाशिषो विश्वरूपा चार्यादिभ्य सुखमसता तत्र तौ भाषामाणौ ।। ३/७०।। 
इत्युक्तवा शंकराचार्यकर पलवल्लवमादरात् । 
अवलम्ब्य कराग्रेण दत्तात्रेय : सतापस: ।। ४१ 
प्रतिवेदन गुहाद्वारं दत्वाज्ञां जनसन्ते: । 
क्रमाज्जगाम कैलासं प्रभथै: परिवेष्टितम ।। ५० 
शंकर विजय विलास - ३० ( अ०) 

शं ० दि ० सर्ग १६ , श्लो ० १०२-३। 

केरल देश की मान्यता - केरल की परम्परा इससे नितांत भिन्न है । गोविन्दनाथ यति लिखित शंकराचार्य चरितम के अनुसार आचार्य की मृत्यु केरल देश में हुई । कांची में सर्वज्ञपीठ पर अधिरोहण करने के अन्तन्तर आचार्य ने वहां कुछ दिनों तक निवास किया । अनन्तर रामेश्वर मे महादेव का दर्शन और पूजन कर शिष्यों के साथ घूमते घामते वे वृषांचल पर आए । यह स्थान केरल में ही है और बड़ा पवित्र है। इसलिए  यह दक्षिण कैलाश कहा जाता है । यही रहते उन्हें  मालूम पड़ा कि उनका अन्तकाल अब आ गया है । उन्होंने विधिवत स्नान किया और शिवलिंग का पूजन किया । अनन्तर श्रीमूल नामक स्थान में उन्होने भगवान श्री कृष्ण और भगवान भार्गव की विधिवत् पूजा की कहा जाता है कि आचार्य ने अपने अन्तिम दिन त्रिचूर के मन्दिर में बिताए थे और उनका शरीर इसी मन्दिर के विशाल प्रांगण में समाधि रूप में गाड़ा था। केरल देश में आज त्रिचूर के मन्दिर की बड़ी प्रतिष्ठा है । जिस स्थान पर यह घटना घटी थी उस स्थान पर महाविष्णु के चिन्हों के साथ एक चबूतरा बनवा दिया गया है । त्रिचूर के पास एक ब्राह्मणवंश आज भी निवास करता है जो अपने को मण्डन मिश्र या सुरेश्वरचार्य का वंशज बतलाता है । त्रिचूर के मन्दिर की केरल भर में ख्वाति पाने का यही कारण माना जाता है शंकराचार्य की समाधि उसी मन्दिर के पास है । 


कांची में देहपात - कामकोटिपीठ कांची की परम्परा पूर्वोक्त दोनों परम्पराओ से भिन्न है। इस मठ की मान्यता कि शंकराचार्य ने अपने शिष्यों को तो चारो मठो का अध्यक्ष बना दिया और अपने लिए उन्होंने कांची को पसन्द किया । यही कम्पातीर वासिनी भगवती कामेश्वेरी अथवा कामकोटि देवी की निरन्तर अर्चना करते हुए आचार्य शंकर ने अपने अन्तिम दिन बिताए कांची नगरी के निर्माण में शंकर का विशेष हाथ था , ऐसा माना जाता है शिवकांची था , किया कामाक्षी के मन्दिर को विष्णु स्थान मानकर श्री चक्र की कल्पना के अनुसार नगरी बसा दी गयी । सदाशिव ब्रहोन्द्र कृत गुरूरत्नमालिका टीका तथा गुरुपरम्परास्रोत में लिखा है कि भगवान शंकर अपने जीवन के अन्तिम समय तक कांची में ही विराजमान थे। आनंदगिरि ने शंकर विजय में कांची में ही आचार्य के शरीरपात होने की बात लिखी है। एक विलक्षण बात यह है कि कांची के मन्दिर कामाक्षी के मन्दिर का सामना करते हुए खड़े अर्थात सब मन्दिर का मुंह कामाक्षी के मन्दिर की ओर ही है बिना बुद्धि पूर्वक रचना किए ऐसी घटना हो नहीं सकती है।  


पंच प्रसिद्ध लिंग - प्रसिद्ध है कि शंकराचार्य कैलाश से पांच स्फटिक लिंग लाये थे जिनमें चार लिंगों की स्थापना उन्होंने चार लिंगों की स्थापना उन्होंने चार प्रसिद्ध तीर्थ में की । श्रंगेरी में उन्होंने भोगलिंग की स्थापना की । चिदम्बरम में मोक्षलिंग की प्रतिष्ठा की। तीर्थयात्रा के प्रसंग में वे दक्षिण भारत के त्रिचनापल्ली के समीप स्थित जम्बुकेश्वर तीर्थ में पहुंचे और वहां की देवी अधिलाण्डेश्वेरी के कानो में ताटंक के स्थान पर श्री चक्र रखकर उन्होंने भगवती की उग्रकला को मृदु बना दिया। तोटकाचार्य को ज्योतिर्मठ का अधिपति बनाकर बदरीनाराणयण के पास मुक्तिलिंग की प्रतिष्ठा की नेपाल क्षेत्र में जिसका प्राचीन नाम नीलकंठ क्षेत्र है उन्होंने वीरलिंग की स्थापना कर उसके पूजा अर्चा की व्यवस्था की । इस प्रकार चार लिंगों की स्थापना श्रृंगेरी चिदम्बरम , नेपाल तथा बदरीनारायण में क्रमशः करके शंकर ने अपने पास सर्वश्रेष्ठ पंचम लिंग रखा । वह योगालिंग  नाम से प्रसिद्ध था कांची शंकर इसी लिंग की पूजा किया करते थे देहत्याग के समय उन्होंने इस लिंग को सुरेश्वर के हाथ समर्पित किया और कांचीपीठ तथा वहां के शारदा पीठ से भिन्न है और शिवकांची में स्थित है शिव रहस्य में भी कांची में योगालिंग की स्थापना तथा आचार्य के अन्तर्धान होने की बात लिखी है । मार्कण्डेय संहिता काण्ड ७२ परिस्पन्द ७ ) में लिखा है कि शंकर ने कामकोटि पीठ में योगालिंग की प्रतिष्ठा की और ( ७१) से प्रतीत होता है कि शंकर काइ देहावसान कांची में हुआ था । कांची के लिंग नाम के विषय में कही योगेश्वर और कही योगेश्वर पाठ मिलता है परन्तु पूर्वोत्तर का अच्छी तरह समन्वय कर योगेश्वर पाठ ही ठीक प्रतीत होता है । नैषध में ( १२/३८) कांची स्थिति जिस स्फटिकलिंग का वर्णन है , वह शंकर द्वारा स्थापित योगेश्वलिंग ही है ।


इस प्रकार कामकोटि पीठ से सम्बन्ध ग्रंथों के कथअनुसार  आचार्य का देहावसान कांची में हुआ था । इन ग्रन्थकारों का कहना है कि माधवाचार्य के अनुसार जो वर्णन मिलता है वह कामकोटि पीठ के ३८ वे शंकराचार्य की जीवन का वृत है आदि शंकराचार्य का नहीं । इनका नाम धीर शंकर था इन्होंने आदि शंकर के समान समस्त भारत का विजय इन्होंने ने 

आनन्द गिरि शंकर विजय प्रकरण ६५ 
तदयोगे भोगवरमुक्तिसुमोक्षायोग - लिंगाचार्यनाप्राप्तेजयस्वकाश्रमे 
तान् विजित्य तरसा क्षतशास्रवादैमिश्रान स काच्यामथ सिद्विमाप - शिव रहस्ये कांचयां श्रीकामकोटि तु योगालिंगमनुतमम् । 
प्रतिष्ठाष्य सुरेश्वर्य पूजार्थ युयुजे गुरू : । 
सिन्धोजैन्नमयं पवित्रमसृजत तत्कीर्तिपूजादूभुतं । 
यत्र स्नाति जगान्ति सन्ति क्यों के वा वाचं यमा ।।

यदबिन्दुश्रियमिन्दुति एवं चाविश्व दृश्येतरो । 
यस्यासौ जलदेवतास्फटिक भूर्जागर्ति योगेश्वर ।। 
           नैषध, सर्ग १२ श्लोक ० ३८। 

ही कश्मीर से सर्वज्ञपीठ पर अधिरोहण किया था तथा कैलाश में ब्रह्मपद में लीन हो ग्रे थे । उन्ही के जीवन की घटनाएं आदिशंकराचार्य के उपर आरोपित कर दी गयी है वस्तुत: ये घटनाएं धीर शंकर की है आदि शंकराचार्य ने तो कांची अपना शरीर छोड़ा था और यही वे बह्रापद में लीन हो गये थे । 

इस प्रकार आचार्य के तिरोधान के विषय में तीन प्रधान मत है (१) की परम्परा , आचार्य का तिरोधान के त्रिचूर नामक स्थान पर मानती है (२) कामकोटि पीठ के अनुसार शंकर ने अपनी ऐहिक लीला का संवरण कांची में किया यही भगवती कामाक्षी की पूजा अर्चा में अपना अन्तिम दिन बिताते थे । सर्वज्ञपीठ पर यही अधिरोहण ये किया तथा उनकी समाधि कांची में दी गयी (३) श्रृंगेरी मठ के अनुसार उन्होंने कैलाश में जाकर इस स्थूल शरीर को छोड़ा । ये ही तीन मत है । प्रथम मत के पोषक प्रमाण अन्यत्र नहीं मिलते । द्वितीय मत पोषक प्रमाण बहुत अधिक है जिनका उल्लेख प्रथमत किया गया है। तृतीय मत सर्वत्र प्रसिद्ध है तथा समग्र संन्यासियों का इस मत में विश्वास है दिग्विजयो के कथन इस विषय में एकारुपात्मक नहीं है । ऐसी विषम स्थिति में किसी सिद्धांत पर पहुंचना बहुत कठिन है । जो कुछ हो , इतना तो बहुमत से निश्चित है शंकराचार्य ने भारतभूमि में से छोड़ा । उनके निधन की तिथि भी भिन्न भिन्न मानी जाती है कुछ लोग उनका अवसान वैशाख शु० ११ को कुछ वैशाख शुक्ल पूर्णिमा को और कुछ लोग कार्तिक शुक्ल ११ मानते हैं । 


शंकराचार्य के तिरोधान के विषय में एक प्रवाद प्रसिद्ध है जिसका उल्लेख यहां करना उचित है । प्रवाद यह है कि शंकराचार्य जब दिग्विजय के लिए बाहर जाते थे तब  एक बड़ा भारी लोह का कडा़हा सा ले चलते थे। बौद्धो के साथ शास्त्रार्थ करने लगते थे तब उस करा लेते थे कि यदि वह शास्त्रार्थ हार जाएंगे तो खौलते हुए तेल में फेंक दिया जाएगा एक बार शंकर महाचीन तिब्बत में बौद्धो से शास्त्रार्थ करने गये और तांत्रिक बौद्धो को शास्त्रार्थ परास्त भी किया । उनके शिष्य आनन्दगिरि ने और आगे बढ़ने से रोका भगवन आगे बढ़ने की आवश्यकता नहीं है । जगत की सीमा नहीं है आप शास्त्रार्थ कहा की सीमा तक करते चलियेगा ? गुरु शिष्य की बात मान ली और कड़ाहे को वही अपने दिग्विजय की सीमा निर्धारण करने के लिए छोड़कर वहां से लौटे । तिब्बत में सुनते हैं कि वह स्थान शंकर कटाह के नाम से आज भी प्रसिद्ध है नेपाल और तिब्बत में यह किम्वदन्ती प्रचलित है कि शंकर तिब्बत के किसी लामा से शास्त्रार्थ में पराजित हुए थे और अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार खौलते हुए तेल में अपने को फेंककर प्राण त्याग किया था कुछ लोग यह भी कहते हैं कि लामा ने तान्त्रिक प्रयोग से शंकर को मार डाला था ये तरह की निर्मूल किंवदन्तियां है जिनमें हम सहस विश्वास नहीं कर सकते हैं इन्हें केवल पाठकों जानकारी के लिए यहां उद्धृत किया गया है। 

इस प्रकार परम ज्ञानी यतिराज शंकर के जीवन का ३२ वर्ष समाप्त हुआ । वे निर्विकल्पक समाधि का आश्रय लेकर इस धराधाम से चले गये । परब्रह्म से विकीर्ण होने वाली वह परम ज्योति जगत को आलोकित कर फिर उसी परब्रहा में विलीन हो गयी । 
ॐ तत् सत् 



जय श्री कृष्ण 
दीपक कुमार द्विवेदी 

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