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पद्मपाद पद्मपाद का घर चोल ( द्रविड़) देश में था । परन्तु विद्याध्यन के लिए बल्यकाल में ही काशी चले आये थे। यही पर काशी में उनकी शंकरचार्य से भेंट हुई और वे उनके शिष्य बन गये । तब वे लगातार अपने गुरु के साथ ही अनेक तीर्थो में भ्रमण करते रहे । श्रृंगेरी में पंचपादिका की रचना के अनन्तर उनके हृदय में दक्षिण के तीर्थो को देखने की अभिलाषा जगी । शंकर से उन्होंने इस कार्य के लिए आज्ञा मांगी । पहले तो; वे इस प्रस्ताव के विरूद्ध थे, परन्तु शिष्य के विशेष आग्रह करने पर उन्होंने तीर्थयात्रा की अनुमति दे दी । अपने अनेक सहपाठियों के साथ मेंपद्मपाद दक्षिण के तीर्थ दर्शन के लिए निकल पड़े वे पहले पहल कालहस्तीश्वर , में पहुंचे और सुवर्णमुखरी नामक नदी में स्नानकर उन्होंने महादेव की विधिवत् पूजा की और वहां कुछ काल तक निवास किया । यहां से चलकर वे कांची क्षेत्र में पहुंचे । शिवकांची में स्थित कामेश्वर और कामाक्षी नाम से विख्यात शिव पार्वती की उन्होंने विधिवत अर्चना की । अनन्तर कांची के पास ही कल्लाल नामक ग्राम में स्थित कल्लादेश नामक विष्णुमूर्ति का दर्शन कर भक्ति भाव से उनकी पूजा की । वहां से पुण्डरीकपुर नामक नगर में पधारे । वहां शिव का अखण्ड ताण्डव हुआ करता हैं ।जिसे निर्मल चितवाले तथा दिव्यचक्षु से युक्त मुनिजन सदा प्रत्यक्ष किया करते हैं । वहां से चलकर वे शिवगंगा नामक प्रसिद्ध तीर्थक्षेत्र में पहुंचे । यहां के शिवलिंग का नाम दाक्षायणीनाथ है पद्मपाद ने स्नानादि करके महादेव की पूजा की । अब पद्मपाद की इच्छा रामेश्वर - दर्शन की हुई । उन्होंने उधर जाने का मार्ग पकड़ा । रास्ते में उन्हें परम पवित्र कावेरी नदी मिली । मुनि ने यहां पर नदी में विधिवत स्नान किया और आगे प्रस्थान किया ।
पद्मपाद के मामा इसी प्रदेश में निवास करते थे । वे स्वयं बड़े भारी पण्डित्य थे । उन्होंने अपने भानजे को अनेक शिष्यों के साथ आया हुआ देखकर बड़े आनन्द का अनुभव किया । पद्मपाद के इतने दिनों के बाद आनेका समाचार बिजली की तरह चारो ओर फैल गया । गांव के सब लोग इन्हें देखने के लिए दौड़े आये ।
पद्मपाद में भी कितन परिवर्तन हो गया था । गये तो थे ब्रह्माचारी बनकर काशी
विद्याध्ययन करने और वहां से सन्यासी बनकर लौटे । लोगों के विस्मय का ठीकाना न रहा ।
गार्हस्थ्य धर्म की प्रसंशा - पद्मपाद ने ग्रहस्थ आश्रम की प्रसंशा कर उन्हें अपने धर्म का विधिवत अनुष्ठान करने का आदेश दिया । गृहस्थश्रम ही तो सब आश्रमो का मूल आश्रम
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दक्षिण भारत का प्रसिद्ध शैव तीर्थ ।
कांची तो अपनी स्थिति तथा पवित्रता के लिए सर्वत्र प्रसिद्ध है । यह मद्रास प्रान्त का प्रसिद्ध शैव - क्षेत्र है सप्तपुरियो में अन्यतम है । कल्लाल आदि छोटे छोटे स्थान इसी के पास थे । इस समय इनके वर्तमान नाम का पता नहीं चलता है।
प्रातः तथा सायंकाल अग्निहोत्र का अनुष्ठान करनेवाला मृगचर्मधारी ब्रह्माचारी जब भूख से व्याकुल हो जाता है तब अपनी पूर्ति के लिए ग्रहस्थ के ही आश्रम में जाता है। इसी प्रकार उच्चस्वर के शास्त्र की व्याख्या करनेवाले तथा प्रणव मंत्र जपने वाले संयमी संन्यासी की उदर ज्वाला जब दोपहर के समय धधकने लगती है तो वह ग्रहस्थ के ही घर से भिक्षा के लिए जाता है परोपकार ही गार्हस्थ्य धर्म का मूल मंत्र है । विचार तो किजिए , चारों पुरुषार्थ की सिद्धि शरीर के उपर अवलम्बित है । शरीर यदि स्वस्थ हैं तो पुरूषार्थो का अर्जन भली भांति हो सकता है तथा यह शरीर अन्न के उपर अवलम्बित है । अन्न तो ग्रहस्थो से ही प्राप्त होता है , इसलिए संसार के जितने फल है । वे ग्रहस्थ रूपी वृक्ष से प्राप्त होते हैं अतः ग्रहस्थश्रम में रहकर उनके धर्म को आप लोग भलीभांति निबाहिये , यही मेरे उपदेश का सारांश है ।
पद्मपाद अपने मामा के घर में टिके । उनके घर में भोजन किया । भोजन कर लेने पर मामा ने पूछा कि इस विद्यार्थी के हाथ में कौन सी पुस्तक गुप्त रूप से रखी है पद्मपाद न कहा कि टीका है जिसे मैंने अपने गुरु शंकराचार्य के द्वारा रचित ब्रहासूत्र भाष्य पर लिखी है । मामा ने उस ग्रंथ का अवलोकन कर , अपने भानजे की विलक्षण बुद्धि देख एक ही साथ आनंद और खेद का अनुभव किया । आनन्द। हुआ प्रबंध लिखने की निपुणता देखकर परन्तु खेद हुआ स्वाभिमत मीमांसा मत का खण्डन देखकर । अनेक प्रबल युक्तियों के सहारे पद्मपाद अद्वैत मत का मण्डन और रक्षण किया था । इस कारण तो उन्हें महान हर्ष हुआ परन्तु जब प्रभाकर मत का जो उनका अपना खास मत था - खण्डन देख तो उनके हृदय में डाह की आग जलने लगी पद्मपाद को रामेश्वर की ओर जाना अभीष्ट था परन्तु वे अपने साथ ग्रंथ को ले नहीं जाना चाहते थे । कौन जाने रास्ते में कुछ अनर्थ हो जाय इसलिए उन्होंने अपना ग्रंथ अपने मामा के यहां रख दिया और शिष्यों के साथ दक्षिणयात्रा के लिए चल पड़े । अगस्त्य के आश्रम का दर्शन करते हुए वे सीधे सेतुबंध में पहुंचे वहां भगवान शंकर रामेश्वर की विधिवत् पूजा की और कुछ दिनों तक वहां निवास किया ।
पंचपादिका का जलाया जाना - पद्मपाद यात्रा के लिए गये अवश्य परन्तु उनका चित अतर्कित विघ्न की आंशका से नितान्त चिन्तित रहता था उधर उनके मामा के हृदय में विद्वेष की आग जल रही थी । आपने ही घर में अपने ही मत को तिरस्कृत करनेवाली पुस्तक रखना उन्हें असह्रा उठा । घर जलाना उन्हें मंजूर था परन्तु पुस्तक रखना सह्रा न था । बहि उन्होंने घर में आग लगा दी आग की लपटे धू धू करती हुई आकाश में उड़ने लगी । देखते देखते घर जलने के साथ ही पद्मपाद का यह ग्रंथ रत्न भी भस्मसात हो गया ।
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शरीरमूलं पुरूषार्थसाधन तच्चान्नमूल श्रुतितोऽवगम्यते ।
तच्चान्नमस्माकममीषु संस्थितां सर्व फलं गेहपतिद्रुमाश्रम।।
रामेश्वरम भारत के सुदूर दक्षिण में समुद्र के किनारे प्रसिद्ध शैव तीर्थ ।
उधर पद्मपाद रामेश्वर से लौटकर आये और महान अनर्थ की यह बात सुनी । मामा ने बनावटी सहानभूति दिखलाते हुए ग्रन्थ के नष्ट हो जाने पर अत्यंत खेद प्रकट किया पद्मपाद ने उत्तर दिया कोई आपत्ति नहीं है, ग्रंथ अवश्य नष्ट हो गया है परन्तु मेरी बुद्धि नष्ट नहीं है । फिर वह बना लेगी सुनते हैं कि इधर उतर को सुनकर मामा ने नयी सूझ निकाली उनकी बुद्धि को विकृत करने के लिए उन्होंने भोजन में विष मिलाकर उनको दे दिया जिसमें पद्मपाद की फिर वैसा पण्डितत्यपूर्ण ग्रंथ लिखने योग्यता जाती रही । उन्होंने पुनः उस ग्रंथ को लिखने का उद्योग किया परंतु लिखने में नितान्त असमर्थ रहे । इस घटना से वे बड़े क्षुब्ध हुए गुरु दर्शन के लिए उन्होंने जब लौट जाना ही उचित समझा मतविद्वेष के कारण मामा के द्वारा ऐसा अनर्थ कर बैठना एक अनहोनी अजरजभरी घटना थी पद्मपाद की यह वृति उनके मामा की विद्वेषाग्नि में जल भुनकर राख हो गयी
जय श्री कृष्ण
दीपक कुमार द्विवेदी
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