🎯 “आतंकवाद की फैक्ट्री, चयनात्मक मौन और भारत की वैचारिक लड़ाई”🌹
भारत में जब भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS), VHP या किसी भी हिंदू-सांस्कृतिक संस्था पर प्रतिबंध जैसी बहस खड़ी की जाती है, तब एक बड़ा प्रश्न उभरना चाहिए। क्या यही आवाज़ें वैश्विक और स्थानीय आतंकवाद की फैक्ट्रियों पर भी इतनी ही दृढ़ता से बोलती हैं? अल-कायदा, जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-तैयबा, ISIS, PFI, SIMI, अल-फलाह, अल-सफा… क्या इन संगठनों पर उसी साहस से किसी “एक्टिविस्ट”, “पार्टी” या “यूनियन” ने खुलकर विरोध किया? उत्तर बेहद साफ़ है- कभी नहीं।
देश में एक चयनात्मक नैतिकता उभर चुकी है, जिसमें आतंकवाद की सबसे खतरनाक प्रयोगशालाओं का उल्लेख तक “असुविधाजनक” माना जाता है। यही वह वैचारिक ढाल है जिसे “No Religion Terrorism Theory” कहकर प्रस्तुत किया जाता है।
परन्तु आश्चर्य यह है कि आतंकवाद पर धर्म-निरपेक्षता का उपदेश देने वाली यह जमात भारत में आते ही कहती है। “हिंदू आतंकवाद ही असली खतरा है।”
यह विरोधाभासी राजनीतिक इस्लाम - (#Political_Islamic_Warfare) का मूल है। जिसका मन्त्र (शत्रु का भ्रम पैदा करो और वास्तविक खतरे को अदृश्य बना दो।) है। जिसमें सुविधा और आवश्यकता को देखते हुये रणनीति बदलते रहना और जिहादी- आतंकी विचारधारा को मजबूत बनाये रखना की तकनीक विकसित की जाती है। इसको सर्वव्यापी बनाया जाता है।
1. आतंकवाद की फैक्ट्री और ग्लोबल मौन
अल-कायदा और ISIS ने पिछले दो दशकों में दुनिया को बारूद के ढेर में बदला है। तालिबान ने महिलाओं की शिक्षा, समाज और स्वतंत्रता को पूरी तरह कुचल दिया है। जैश-लश्कर जैसे संगठनों ने भारत के सैकड़ों नागरिकों को निशाना बनाया है। लेकिन भारत के एक वर्ग में इनके खिलाफ न तो कोई सार्वजनिक मोर्चा देखने को मिलता है, न कोई लंबी बहस, न कोई सतत अभियान।
PFI जैसे संगठनों पर दर्जनों मामलों में आतंकी कनेक्शन सामने आ चुके हैं, परंतु अकादमिक संस्थानों से लेकर NGO तक—कई जगह इनकी आलोचना “असहज” विषय मानी जाती है।
2. Activist-Party-Unions का चयनात्मक मौन
RSS पर आरोप लगाने वाले सभी - कभी अल-कायदा पर प्रदर्शन नहीं करते, कभी ISIS के खिलाफ मुहिम नहीं चलाते, कभी लश्कर-ए-तैयबा के दहशत पर बहस नहीं करते, और तालिबानी अत्याचार पर “कला-जगत” भी चुप हो जाता है। बहुत से समूह स्वयं को देशभर में जागृति का केन्द्र मानते है। बड़ी बड़ी सामादिक बहस करते मिलते है। पर आतंकवाद पर चूप क्यों हो जाते है? स्वयं को बुद्धिजीवी मानने वाले, Human Activist आदि- दरअसल क्या यह एक पूरा एक इकोसिस्टम नहीं है—जिसका उद्देश्य यह है कि
वास्तविक आतंकी संरचनाओं पर चर्चा कभी मूलधारा में न आए। इस मौन का लाभ किसे मिलता है?
आतंकी नेटवर्क को। कट्टरपंथ को। भारत-विरोधी विचारधाराओं को।
3. ‘New Normal’ का खतरा- आज हम और हमारा समाज, प्रशासन, सरकारें सभी दुष्परिणाम स्वरूप धीरे-धीरे यह मानने लगा हैं कि कुछ मजहबी चरमपंथ “नॉर्मल” है। उनके कुछ इलाके “नो-गो ज़ोन” होना सामान्य है। कुछ संगठन, जाति, भाषा, मज़हब या तौर तरीकों को “Victimhood” देना सामान्य है अथवा कुछ मुद्दों पर चुप्पी रखना समझदारी है, सब चूप हैं तो तू क्यों बोल रहा है। अब ये सामान्य है
यही चुप्पी वह ऑक्सीजन है जिससे अलगाववाद एवं आतंकवाद की फैक्ट्री चलती है।
जब समाज, संस्थान, वर्ग आदि सांस्कृतिक, धार्मिक और वैचारिक हिंसा को “स्वाभाविक” मानने लगे, तब राष्ट्र की रीढ़ कमजोर हो जाती है। हमें इस नवीन खतरे को भी पहचानना है।
4. भारत के लिए क्या आवश्यक है?
आज हम स्पष्ट रूप से तीन स्तरों पर लड़ाई लड़ रहे है।
पहली लड़ाई वैचारिक स्तर पर चल रही है।
जिसमें कट्टरपंथ के चरित्र, स्रोत और संचालकों का नाम लेकर बहस करना। Political Islamic Warfare के तंत्र-- NGO नेटवर्क, विदेशी फंडिंग, डिजिटल नैरेटिव आदि का खुला विश्लेषण करना है।
दूसरी लड़ाई संस्थागत स्तर पर चल रही है
जिसमें जिन संगठनों का वैश्विक आतंकवाद से सीधा या परोक्ष संबंध आता है, उनके विरूद्ध एकत्रित हो राष्ट्रव्यापी Naming & Shaming शुरुआत करनी होगी। उनको new normal कहकर छोड़ा नहीं जा सकता है।
तीसरी लड़ाई सामाजिक स्तर पर लड़ना होगा जहाँ पर हिंदू-द्रोही नैरेटिव और आतंकवाद की ढाल बनने वाले “चयनात्मक धर्मनिरपेक्षतावाद” का पर्दाफाश करना आवश्यक है। सामाजिक संचेतना का जागरण एक प्रमुख मोर्चा है।
निष्कर्ष रूप में कहना हो तो भारत की लड़ाई आतंकियों से ही नहीं, बल्कि उनके “राजनीतिक-वैचारिक संरक्षकों” से भी है। जो आतंकवाद का नाम लेने से डरते हैं। वे अनजाने में उसी आतंकवाद की रक्षा करते हैं। अब समय है कि समाज एकजुट होकर इस चयनात्मक मौन को तोड़े और वास्तविक खतरे की पहचान करें। 🌹🙏 #Kailadh_Chandra Kailash Chandra
(प्रकाशन के लिये विस्तृत उपलब्ध है।)
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