विवाह, संस्कार और न्याय: भारत के सांस्कृतिक मोड़ पर


🖋️दीपक कुमार द्विवेदी 


आज का भारत एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहाँ सभ्यता का संघर्ष अब अदृश्य न्यायिक कक्षों में लड़ा जा रहा है। जो कभी हमारे समाज की आत्मा था — वह “परिवार”, अब उसी के विरुद्ध निर्णय सुनाए जा रहे हैं। अदालतों की ठंडी भाषा के भीतर से अब एक नई विचारधारा बोल रही है — कल्चरल मार्क्सवाद की, जो मनुष्य को स्वतंत्रता के नाम पर विखंडित करती है और समाज को "व्यक्ति बनाम परिवार" के द्वंद्व में बदल देती है।

आज देश की राजधानी दिल्ली में आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय
 सेमिनार —
‘क्रॉस-कल्चरल परिप्रेक्ष्य: इंग्लैंड और भारत में पारिवारिक कानून में उभरते रुझान और चुनौतियाँ’ —
में सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति श्री सूर्यकांत ने जो वक्तव्य दिया है, वह केवल एक विचार नहीं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक आत्मा के लिए एक चेतावनी है।

उन्होंने कहा —

> “विवाह जैसी सामाजिक संस्था का इतिहास बताता है कि इसे महिलाओं को अधीन रखने के साधन के रूप में इस्तेमाल किया गया है।”

पहली दृष्टि में यह कथन एक “उदार और न्यायपूर्ण” दृष्टिकोण का प्रतीक प्रतीत होता है, परंतु यदि इसे गहराई से समझा जाए, तो यह हमारे भारतीय परिवार तंत्र की मूल आत्मा पर एक सूक्ष्म किंतु गहरा प्रहार है।

क्योंकि भारत में विवाह का अर्थ कभी “अधीनता” नहीं रहा।

यहाँ विवाह कोई कानूनी अनुबंध नहीं, बल्कि धर्म, दायित्व और परस्पर समर्पण का पवित्र बंधन रहा है।
हमारे यहाँ “सप्तपदी” का अर्थ गुलामी नहीं, बल्कि दो आत्माओं का संयुक्त यात्रा-संकल्प है —
जहाँ पति-पत्नी दोनों यह प्रतिज्ञा करते हैं कि वे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की साधना साथ करेंगे।

यहाँ स्त्री केवल पत्नी नहीं, अर्धांगिनी है —
वह गृह की लक्ष्मी है, परिवार की चेतना है, और पुरुष के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
“मनुस्मृति” में कहा गया है —

> “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।”
अर्थात् जहाँ स्त्रियों का सम्मान होता है, वहाँ देवता भी प्रसन्न होकर निवास करते हैं।

परंतु अब उसी विवाह को “दमन” और “अधीनता” का प्रतीक बताना,
दरअसल उस वैचारिक प्रवाह की अभिव्यक्ति है जो पश्चिम से चलकर भारत की आत्मा में प्रवेश कर चुका है।
यह वही विचारधारा है जो कहती है —

> “परिवार पितृसत्ता की जड़ है, उसे तोड़ो ताकि व्यक्ति स्वतंत्र हो।”

यह विचार न तो भारतीय है, न ही मानवीय।
यह कल्चरल मार्क्सिज़्म (Cultural Marxism) का वैचारिक उपकरण है —
जो हर परंपरा, हर मूल्य, और हर धार्मिक प्रतीक को “दमन” के रूप में व्याख्यायित करता है।
यही कारण है कि कभी विवाह को गुलामी कहा जाता है,
कभी मातृत्व को “कैरियर में बाधा”,
और कभी परिवार को “व्यक्ति की स्वतंत्रता का शत्रु” घोषित किया जाता है।

किन्तु भारत की दृष्टि में परिवार स्वतंत्रता का शत्रु नहीं, बल्कि संवेदनाओं की शरणस्थली है।
यहीं से “कर्तव्य” जन्म लेता है, यहीं “त्याग” खिलता है, और यहीं से “राष्ट्र” की आत्मा पल्लवित होती है।
परिवार केवल सामाजिक संस्था नहीं, बल्कि एक धार्मिक और सांस्कृतिक दायित्व है।

जस्टिस सूर्यकांत का यह वक्तव्य, चाहे अनजाने में ही सही,
अब उसी दीर्घकालिक वैचारिक परियोजना का हिस्सा प्रतीत होता है
जिसका उद्देश्य भारतीय समाज की आत्मा को ‘आधुनिकता’ के नाम पर विखंडित करना है।

और यह विखंडन केवल वैचारिक नहीं — यह अस्तित्वगत (existential) है।
क्योंकि जब परिवार टूटता है, तो समाज दिशाहीन हो जाता है।
जब विवाह की पवित्रता नष्ट होती है, तो नैतिकता क्षीण होती है।
और जब नैतिकता समाप्त होती है, तब सभ्यता केवल उपभोक्ता संस्कृति का ढाँचा बनकर रह जाती है।

आज आवश्यकता है कि हम इस वक्तव्य को केवल एक समाचार की तरह न देखें,
बल्कि एक संस्कृति-सुरक्षा के प्रश्न के रूप में ग्रहण करें।
क्योंकि यह वही मार्ग है जिस पर चलकर पश्चिम ने अपने परिवारों को खो दिया,
और अब वही प्रयोग भारत की भूमि पर दोहराया जा रहा है —
कभी सिनेमा के माध्यम से, कभी शिक्षा के माध्यम से, और अब न्यायपालिका के माध्यम से।

परंतु आज “विवाह” को दमन का प्रतीक कहा जा रहा है। यह कोई साधारण बात नहीं। यह उसी वैचारिक धारा की उपज है जिसने पहले लिव-इन रिलेशनशिप को “स्वतंत्रता” कहा, फिर समलैंगिक संबंधों को “अधिकार” घोषित किया, फिर व्यभिचार (adultery) को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया — और अब विवाह को ही “गुलामी” का प्रतीक ठहराया जा रहा है। यह सब आकस्मिक नहीं है। यह एक योजनाबद्ध वैश्विक सांस्कृतिक युद्ध (Global Cultural War) का हिस्सा है, जिसका उद्देश्य है — हिन्दू समाज के सबसे सुदृढ़ स्तंभ “परिवार” को तोड़ना।

न्याय के नाम पर “विचारधारा” का प्रवेश

न्यायपालिका का उद्देश्य सदैव “न्याय” होना चाहिए, किंतु जब न्याय “विचारधारा” से निर्देशित होने लगता है, तो समाज में भ्रम फैलता है।
2018 में सुप्रीम कोर्ट ने Section 497 (व्यभिचार कानून) को समाप्त करते हुए कहा — “विवाहित स्त्रियों को संपत्ति नहीं समझा जा सकता।”
यह तर्क नारी गरिमा की आड़ में उचित लगा, किंतु परिणाम यह हुआ कि विवाह का पवित्र बंधन अब किसी कानूनी सुरक्षा के बिना रह गया।
फिर 2018 में ही Navtej Singh Johar vs Union of India में समलैंगिकता को “सामान्य” घोषित किया गया।
2023 में Same-Sex Marriage पर सुप्रीम कोर्ट के कुछ न्यायाधीशों ने कहा कि “विवाह” का अर्थ केवल पुरुष-स्त्री तक सीमित नहीं होना चाहिए — यह सीधा आक्रमण था हिन्दू विवाह-संस्कार की परिभाषा पर, जो “पुत्रोत्पत्ति” और “गृहस्थ धर्म” से जुड़ा है।

कल्चरल मार्क्सिज़्म का सूत्र

कल्चरल मार्क्सवाद का मूल सिद्धांत है — “परिवार को तोड़ो, ताकि समाज को नियंत्रित किया जा सके।”
मार्क्स ने कहा था — “परिवार पूँजीवादी शोषण की मूल इकाई है।”
और अब यही विचार “न्यायिक प्रगतिवाद” के नाम पर भारत के संविधानिक ढाँचे में प्रवेश पा चुका है।
यह विचार पश्चिम से आयातित है, जहाँ परिवार व्यवस्था पहले ही टूट चुकी है — वहाँ बच्चे माता-पिता से अलग, माता-पिता एक-दूसरे से अलग, और व्यक्ति स्वयं अपनी जड़ों से अलग हो चुका है। अब वही ढाँचा भारत पर आरोपित किया जा रहा है।

हिन्दू परिवार – समाज की आत्मा

भारत में परिवार केवल सामाजिक इकाई नहीं है — यह धर्म का प्रथम विद्यालय है।
यहाँ “गृहस्थाश्रम” को चारों आश्रमों में सर्वोच्च माना गया, क्योंकि यही वह स्थान है जहाँ से संस्कार, सेवा, त्याग और संयम के सूत्र समाज में प्रवाहित होते हैं।
माता “अन्नदाता” नहीं, “अन्नपूर्णा” है; पिता “पालक” नहीं, “संरक्षक” है।
परंतु आज इस परिवार को पितृसत्ता, गुलामी और लैंगिक असमानता का केंद्र बताकर ध्वस्त करने का प्रयास हो रहा है।
यह वही षड्यंत्र है जिसने पश्चिम को विखंडित किया और अब भारत को लक्ष्य बना रहा है।

जब न्याय “संस्कार” को विस्मृत कर देता है

न्यायमूर्ति सूर्यकांत का वक्तव्य इस दीर्घ वैचारिक पंक्ति का विस्तार है।
उनका यह कथन कि “विवाह महिलाओं को अधीन रखने का साधन रहा है” न केवल असत्य है, बल्कि भारतीय परंपरा के प्रति अज्ञान का परिचायक भी है।
हमारे यहाँ “विवाह” का अर्थ ही है — धर्मसंस्थापनार्थं पति-पत्नी का एकत्र समर्पण।
स्त्री कभी अधीन नहीं रही, वह अर्धांगिनी रही है — बिना जिसके पुरुष अधूरा है।
किन्तु आज के निर्णयों में यह सनातन दृष्टि अनुपस्थित है। वहां “अधिकार” हैं, पर “कर्तव्य” नहीं; “स्वतंत्रता” है, पर “संस्कार” नहीं।

अब क्या करें?

यदि आज समाज मूक बना रहा, तो कल हमारी स्थिति पश्चिम जैसी हो जाएगी —
जहाँ बच्चे माँ-बाप का नाम नहीं जानते, और विवाह एक अस्थायी अनुबंध बन चुका है।
आज आवश्यकता है कि हम इस विचारधारात्मक न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism) को समझें और परिवार संस्था की रक्षा के लिए वैचारिक चेतना जगाएँ।

हमें यह स्मरण रखना होगा कि—

> “जहाँ परिवार जीवंत है, वहाँ संस्कृति जीवंत है;
जहाँ संस्कृति जीवंत है, वहाँ राष्ट्र अमर है।”

और इसलिए आज यह केवल विचार का नहीं, अस्तित्व का प्रश्न है—
क्या हम अपनी अगली पीढ़ी को परिवारविहीन, मूल्यविहीन और संस्कारविहीन समाज सौंप देंगे?
या फिर अपने सनातन धर्म के इस अमूल्य उपहार — गृहस्थाश्रम — की रक्षा हेतु
एक सजग वैचारिक प्रतिरोध खड़ा करेंगे?

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