सकारात्मकता की शक्ति : संघ कार्य का मूल मंत्र


By 🖋️डॉ भूपेंद्र सिंह 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ केवल एक संगठन भर नहीं है, यह किसी भी व्यक्ति के जीवन जीने का एक तरीका है, जहाँ वह स्वयं की इस समाज के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ केवल एक संगठन भर नहीं है, यह किसी भी व्यक्ति के जीवन जीने का एक तरीका है, जहाँ वह स्वयं की इस समाज के प्रति जिम्मेदारी स्वीकार करता है और समाज के कमियों को अपनी कमी समझकर उसकी जिम्मेदारी स्वयं के ऊपर लेकर बिना समाज की निंदा किए, बिना प्रतिक्रिया के उसमें सुधार का अनथक प्रयास करता है। बहुत से लोग संघ में नहीं हैं लेकिन उनका जीवन दर्शन ऐसा होने से वह आदर्श स्वयंसेवक है और बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो संघ में दशकों से हैं लेकिन यह समझ और जीवन दर्शन उनके भीतर नहीं पहुँच पाया है। इसलिए किसी का स्वयंसेवकत्व उसके संघ में शामिल होने के समय से अधिक उसके कार्य व्यवहार से आँकना ही श्रेष्ठ होगा।
संघ की खासियत यह है कि इसके कार्यकर्ता सकारात्मकता के साथ सतत कार्य करते रहते हैं। नकारात्मकता में बड़ी ऊर्जा होती है और वह न केवल बहुत तीव्र होता है बल्कि बहुत ही आकर्षित करता है। सरकार के प्रति गुस्सा हो, धरना प्रदर्शन हो, आंदोलन हो, इन सबके पीछे जो नकारात्मक ऊर्जा होती है, वह लोगों को बहुत तेज़ी से जोड़ती है। लेकिन सकारात्मकता में न ऐसा आवेग होता है और न ही तेज़ी, बावजूद इसके संघ के स्वयंसेवक लगातार लगे रहते हैं। इसी कारण यह कार्य चिरंजीवी हो पाया है। संघ का काम सकारात्मक होने से बेहद थकाऊ, उबाऊ और उदासीन प्रवृत्ति का है। यही इस कार्य को सततता भी प्रदान करता है। मैं नहीं जानता कि मैं आप लोगों के सामने अपनी बात सही से रख पा रहा हूँ अथवा नहीं, लेकिन संघ कार्य के विस्तार के पीछे का मूल कारण है इसकी सकारात्मकता और बेहद धीमा रफ़्तार। 
संघ कभी इतना तेज नहीं चलता कि केवल कुछ एक लोग ही उस चाल को पकड़ पायें। इसके पास तमाम ऐसे लोग हैं जो तेज चल सकते हैं लेकिन संघ उनको धीमा रखता है ताकि समाज के अधिक से अधिक व्यक्ति उस कार्य में साथ चल सकें। संघ का कार्य ही है किसी भी सकारात्मक काम में समाज के अधिक से अधिक लोगों को जोड़ना, अधिक से अधिक लोगों को किसी कार्य की जिम्मेदारी लेने देना, किसी भी कार्य में समाज के अधिक से अधिक लोगों का तन, मन और धन का लगना ताकि उस कार्य के पश्चात अधिक से अधिक लोगों में उसके लिए ओनरशिप का भाव जाग्रत हो। संघ में मैंने भी अपने जीवन का तीन दशक से अधिक समय बिताया है और मेरा अपना अनुभव है कि इस संगठन में जो तेज चलता है, वह बहुत जल्दी थक जाता है और स्वयं को अकेला पाता है और कुछ ही समय में उन्हें लगने लगता है कि यह संगठन बेकार है, इससे कुछ नहीं होने वाला और ऐसे लोग फिर एकला चलो का मार्ग पकड़ने लगते हैं और समाज से आशा रखते हैं कि वह संघ के बजाय उनके साथ जुड़े, जब तक उन्हें समाज के रफ़्तार का पता चलता है तब तक वह काल बाह्य हो जाते हैं और जीवन भर हिंदू समाज को कोसते रहते हैं। 

संघ की जो सबसे बड़ी विशेषता है इस लोकतांत्रिक भारत में है वह ये है कि उसे अपना लक्ष्य पता रहता है लेकिन उस लक्ष्य को वह समाज पर थोपता नहीं है। इसके लिए संघ में एक वाक्य चलता है जो हमें यदि अपना परिवार या कोई कंपनी भी चलाना है तो इसे सीखना चाहिए, संघ में कहते हैं कि इस कार्य के लिए समाज का मन तैयार करना होगा। अर्थात आप यदि कोई परिर्वतन चाहते हैं और आपका उस परिवर्तन के लिए सौ फीसदी कन्विक्शन है तो भी उसे थोपिये नहीं, समाज के मत का परिष्करण करिए, चर्चा वार्ता करके बिना हड़बड़ी के धीरे धीरे उन्हें समझाइए कि इसी में हम सबका हित छिपा है, आज कुछ लोग समझेंगे, कल कुछ और लोग समझेंगे, ऐसा करते करते धीरे धीरे समाज किसी विषय के लिए तैयार होता है, और एक बार समाज तैयार हो गया तो कोई भी कार्य असंभव नहीं है।

संघ के सौ वर्ष के इस यात्रा को न केवल समर्थकों को बल्कि न्यूट्रल एवं विरोधियों को भी समझना चाहिए। संघ की सफलता किसी संगठन मात्र की सफलता नहीं है, यह उस मार्ग की सफलता है जिसे संघ ने अपने लिए चुना। उस मार्ग का अंतिम लक्ष्य है इस राष्ट्र को परम वैभव तक पहुंचाना।
कोई संघ समर्थक है, कोई विरोधी है, कोई उदासीन है लेकिन बावजूद इसके एक अच्छी बात यह है इस देश का प्रत्येक हिंदू चाहे वह इस धरती से उपजे जिस भी मत अथवा संप्रदाय को मानता हो, वह भी इस राष्ट्र को परम वैभव तक पहुंचाना चाहते हैं। किसी को लक्ष्य से विरोध नहीं है। इसीलिए संघ इस देश में रहने वाले उस किसी भी व्यक्ति का अपना दुश्मन स्वीकार नहीं करता जिनकी श्रद्धा इस राष्ट्र में है, इसकी संस्कृति में है और इसके उत्कर्ष में है। जिम्मेदारी स्वीकार करता है और समाज के कमियों को अपनी कमी समझकर उसकी जिम्मेदारी स्वयं के ऊपर लेकर बिना समाज की निंदा किए, बिना प्रतिक्रिया के उसमें सुधार का अनथक प्रयास करता है। बहुत से लोग संघ में नहीं हैं लेकिन उनका जीवन दर्शन ऐसा होने से वह आदर्श स्वयंसेवक है और बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो संघ में दशकों से हैं लेकिन यह समझ और जीवन दर्शन उनके भीतर नहीं पहुँच पाया है। इसलिए किसी का स्वयंसेवकत्व उसके संघ में शामिल होने के समय से अधिक उसके कार्य व्यवहार से आँकना ही श्रेष्ठ होगा।

संघ की खासियत यह है कि इसके कार्यकर्ता सकारात्मकता के साथ सतत कार्य करते रहते हैं। नकारात्मकता में बड़ी ऊर्जा होती है और वह न केवल बहुत तीव्र होता है बल्कि बहुत ही आकर्षित करता है। सरकार के प्रति गुस्सा हो, धरना प्रदर्शन हो, आंदोलन हो, इन सबके पीछे जो नकारात्मक ऊर्जा होती है, वह लोगों को बहुत तेज़ी से जोड़ती है। लेकिन सकारात्मकता में न ऐसा आवेग होता है और न ही तेज़ी, बावजूद इसके संघ के स्वयंसेवक लगातार लगे रहते हैं। इसी कारण यह कार्य चिरंजीवी हो पाया है। संघ का काम सकारात्मक होने से बेहद थकाऊ, उबाऊ और उदासीन प्रवृत्ति का है। यही इस कार्य को सततता भी प्रदान करता है। मैं नहीं जानता कि मैं आप लोगों के सामने अपनी बात सही से रख पा रहा हूँ अथवा नहीं, लेकिन संघ कार्य के विस्तार के पीछे का मूल कारण है इसकी सकारात्मकता और बेहद धीमा रफ़्तार। 

संघ कभी इतना तेज नहीं चलता कि केवल कुछ एक लोग ही उस चाल को पकड़ पायें। इसके पास तमाम ऐसे लोग हैं जो तेज चल सकते हैं लेकिन संघ उनको धीमा रखता है ताकि समाज के अधिक से अधिक व्यक्ति उस कार्य में साथ चल सकें। संघ का कार्य ही है किसी भी सकारात्मक काम में समाज के अधिक से अधिक लोगों को जोड़ना, अधिक से अधिक लोगों को किसी कार्य की जिम्मेदारी लेने देना, किसी भी कार्य में समाज के अधिक से अधिक लोगों का तन, मन और धन का लगना ताकि उस कार्य के पश्चात अधिक से अधिक लोगों में उसके लिए ओनरशिप का भाव जाग्रत हो। संघ में मैंने भी अपने जीवन का तीन दशक से अधिक समय बिताया है और मेरा अपना अनुभव है कि इस संगठन में जो तेज चलता है, वह बहुत जल्दी थक जाता है और स्वयं को अकेला पाता है और कुछ ही समय में उन्हें लगने लगता है कि यह संगठन बेकार है, इससे कुछ नहीं होने वाला और ऐसे लोग फिर एकला चलो का मार्ग पकड़ने लगते हैं और समाज से आशा रखते हैं कि वह संघ के बजाय उनके साथ जुड़े, जब तक उन्हें समाज के रफ़्तार का पता चलता है तब तक वह काल बाह्य हो जाते हैं और जीवन भर हिंदू समाज को कोसते रहते हैं। 

संघ की जो सबसे बड़ी विशेषता है इस लोकतांत्रिक भारत में है वह ये है कि उसे अपना लक्ष्य पता रहता है लेकिन उस लक्ष्य को वह समाज पर थोपता नहीं है। इसके लिए संघ में एक वाक्य चलता है जो हमें यदि अपना परिवार या कोई कंपनी भी चलाना है तो इसे सीखना चाहिए, संघ में कहते हैं कि इस कार्य के लिए समाज का मन तैयार करना होगा। अर्थात आप यदि कोई परिर्वतन चाहते हैं और आपका उस परिवर्तन के लिए सौ फीसदी कन्विक्शन है तो भी उसे थोपिये नहीं, समाज के मत का परिष्करण करिए, चर्चा वार्ता करके बिना हड़बड़ी के धीरे धीरे उन्हें समझाइए कि इसी में हम सबका हित छिपा है, आज कुछ लोग समझेंगे, कल कुछ और लोग समझेंगे, ऐसा करते करते धीरे धीरे समाज किसी विषय के लिए तैयार होता है, और एक बार समाज तैयार हो गया तो कोई भी कार्य असंभव नहीं है।

संघ के सौ वर्ष के इस यात्रा को न केवल समर्थकों को बल्कि न्यूट्रल एवं विरोधियों को भी समझना चाहिए। संघ की सफलता किसी संगठन मात्र की सफलता नहीं है, यह उस मार्ग की सफलता है जिसे संघ ने अपने लिए चुना। उस मार्ग का अंतिम लक्ष्य है इस राष्ट्र को परम वैभव तक पहुंचाना।
कोई संघ समर्थक है, कोई विरोधी है, कोई उदासीन है लेकिन बावजूद इसके एक अच्छी बात यह है इस देश का प्रत्येक हिंदू चाहे वह इस धरती से उपजे जिस भी मत अथवा संप्रदाय को मानता हो, वह भी इस राष्ट्र को परम वैभव तक पहुंचाना चाहते हैं। किसी को लक्ष्य से विरोध नहीं है। इसीलिए संघ इस देश में रहने वाले उस किसी भी व्यक्ति का अपना दुश्मन स्वीकार नहीं करता जिनकी श्रद्धा इस राष्ट्र में है, इसकी संस्कृति में है और इसके उत्कर्ष में है।


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