जातिगत जनगणना, आरक्षण और हिन्दू समाज का भविष्य



सन् 2027 में जब जातिगत जनगणना के आँकड़े सार्वजनिक होंगे, तब भारतीय समाज एक नये मोड़ पर खड़ा होगा। उस समय आरक्षण की सीमा यदि 85% तक पहुँचा दी जाती है, तो यह केवल एक प्रशासनिक परिवर्तन नहीं होगा, बल्कि सम्पूर्ण सामाजिक ढाँचे की जड़ों को हिला देने वाली घटना सिद्ध होगी। लोकतंत्र का मूलाधार समान अवसर है, किन्तु जब अधिकांश पद और अवसर जातिगत खाँचों में बाँट दिए जाएँगे, तब समाज में असंतोष, विद्वेष और विभाजन की गहरी दरारें पड़ना स्वाभाविक होगा।

अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण ऐतिहासिक दृष्टि से न्यायसंगत था। यह उन वर्गों को उठाने का प्रयत्न था जिन्हें शताब्दियों तक उपेक्षा सहनी पड़ी। परन्तु 1989 में जब मंडल आयोग ने ओबीसी आरक्षण का प्रस्ताव रखा, तब एक नयी प्रवृत्ति ने जन्म लिया। इस प्रवृत्ति का स्वरूप केवल सामाजिक न्याय नहीं था, बल्कि यह वामपंथी विचारधारा के षड्यंत्र का हिस्सा था, जिसमें हिन्दू समाज के भीतर कृत्रिम संघर्ष खड़ा करने का बीज बोया गया।

मार्क्सवाद की जड़ें वर्ग-संघर्ष के सिद्धांत में हैं। कार्ल मार्क्स ने समाज को दो खाँचों में बाँटा—बुर्जुआ (शोषक) और सर्वहारा (शोषित)। यही विचार आगे चलकर सांस्कृतिक क्षेत्र में कल्चरल मार्क्सवाद बना, जिसमें केवल आर्थिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक, लैंगिक, धार्मिक और नस्लीय आधार पर भी संघर्ष खड़े किए जाने लगे। अमेरिका में इसका रूप था क्रिटिकल रेस थ्योरी (CRT), जिसमें अश्वेतों को जन्मना पीड़ित और श्वेतों को जन्मना अपराधी सिद्ध किया गया। परिणाम यह हुआ कि समाज स्थायी तनाव में फँस गया और श्वेत समाज पर अपराधबोध लाद दिया गया।

भारत में यही विचारधारा जातिगत रूप में रूपांतरित हुई। ओबीसी आरक्षण इस Caste Race Theory का प्रत्यक्ष उदाहरण है। यहाँ ब्राह्मण और सवर्ण वर्ग को जन्मना शोषक ठहराया गया, और ओबीसी समाज को जन्मना पीड़ित। किन्तु यह ऐतिहासिक सत्य के प्रतिकूल है। यादव, जाट, कुर्मी, मराठा, पटेल, गुर्जर, कापू, वैश्य, नाई, लोध—इन जातियों का इतिहास देखें तो ये कभी शासन, कृषि, व्यापार और सैन्य शक्ति की धुरी रही हैं। बड़े-बड़े साम्राज्य इनसे जुड़े रहे। फिर इन्हें पिछड़ा और वंचित सिद्ध कर देना वस्तुतः राजनीतिक षड्यंत्र ही कहा जाएगा।

मंडल आयोग ने 3743 जातियों को ओबीसी वर्ग में सम्मिलित किया और 27% आरक्षण की संस्तुति की। उसी क्षण से भारतीय राजनीति का चरित्र बदल गया। जातिगत पहचान और गणना ने समाज को एक नए संघर्ष की ओर धकेला। और अब जब जातिगत जनगणना के आँकड़े 2027 में आएँगे, तब इस संघर्ष को और तेज करने का प्रयत्न होगा। आरक्षण केवल शिक्षा और सरकारी सेवाओं तक सीमित न रहकर निजी क्षेत्र तक पहुँचाने की माँग उठेगी। इसके बाद सम्पत्ति के समान वितरण का नारा बुलन्द होगा। यह वही मार्ग है जो सोवियत संघ और अफ्रीका के अनेक देशों ने अपनाया था और जिसके परिणामस्वरूप उनकी अर्थव्यवस्था और समाज ढह गया।

आरक्षण की इस राजनीति से तात्कालिक राजनीतिक लाभ अवश्य मिल सकता है, किन्तु इसके दीर्घकालीन परिणाम राष्ट्र के लिए घातक होंगे। समाज का एक बड़ा वर्ग स्वयं को उपेक्षित अनुभव करेगा। सवर्ण समाज, जो अब तक राष्ट्र की अनेक जिम्मेदारियाँ निभाता आया है, धीरे-धीरे हाशिये पर धकेला जाएगा। जिस प्रकार अफ्रीका के अनेक देशों में श्वेत समुदाय पर हिंसा और नरसंहार हुए, उसी प्रकार भारत में भी ब्राह्मणों और सवर्णों के विरुद्ध हिंसक भावनाएँ भड़काई जा सकती हैं। यह स्थिति केवल सामाजिक तनाव तक सीमित नहीं रहेगी, बल्कि गृहयुद्ध जैसी भयावह परिणति ला सकती है।

आर्थिक दृष्टि से भी यह प्रयोग विनाशकारी होगा। निजी उद्योग किसी सरकार की जागीर नहीं है; वह निवेश और परिश्रम पर टिका है। यदि निजी क्षेत्र में आरक्षण लागू हुआ, तो निवेशक अपना धन और श्रम भारत से बाहर ले जाएँगे। परिणामस्वरूप उद्योग ठप होंगे, बेरोजगारी बढ़ेगी और राष्ट्र आर्थिक संकट में घिर जाएगा।

यह परिस्थिति केवल आंतरिक संकट ही नहीं लाएगी, बल्कि बाहरी शक्तियों के लिए अवसर भी बनेगी। इस्लामी और ईसाई शक्तियाँ, जो लम्बे समय से हिन्दू समाज को विखण्डित कर अपने विस्तार का स्वप्न देखती रही हैं, इस अव्यवस्था का लाभ उठाएँगी। वे जातीय विद्वेष और असंतोष को बढ़ाकर बड़े पैमाने पर धर्मान्तरण कराएँगी और भारत की एकता व अखण्डता को गहरी चोट पहुँचाएँगी।

आरक्षण का उद्देश्य कभी यह नहीं था कि समाज को स्थायी रूप से “शोषित बनाम शोषक” में बाँट दिया जाए। उसका लक्ष्य केवल यह होना चाहिए था कि समाज के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति को अवसर मिले। किन्तु आज यह नीति कल्चरल मार्क्सवाद के हथियार में बदल चुकी है। अब यह व्यवस्था समाज को कृत्रिम वर्गों और जातियों में बाँटकर संघर्ष की आग में झोंक रही है।

यदि समय रहते इस प्रवृत्ति को नहीं रोका गया, तो भारत न केवल अपने सामाजिक संतुलन और आर्थिक आधार को खो देगा, बल्कि अपने सनातन सांस्कृतिक चरित्र को भी गँवा देगा। जातिगत जनगणना और अंधाधुंध आरक्षण की इस राजनीति से बचना राष्ट्र के अस्तित्व की शर्त है।

भारत के समक्ष खड़ा यह संकट केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और वैचारिक भी है। यदि जातिगत आँकड़ों और आरक्षण की राजनीति को अनियंत्रित रूप से आगे बढ़ने दिया गया, तो यह राष्ट्र को विघटन की ओर ले जाएगा। परंतु इसका समाधान असंभव नहीं है।

सबसे पहले, यह समझना आवश्यक है कि भारतीय समाज का मूल चरित्र वर्ग-संघर्ष पर नहीं, बल्कि सहयोग और सहअस्तित्व पर आधारित रहा है। पश्चिम ने जहाँ समाज को शोषक और शोषित के खाँचों में बाँटा, वहीं भारत ने सदा से “सर्वे भवन्तु सुखिनः” की परम्परा को पोषित किया। अतः हमें अपने सामाजिक विमर्श को पश्चिमी क्रिटिकल रेस थ्योरी के नक्शे पर नहीं, बल्कि अपनी धर्म, न्याय और कर्तव्य की परम्परा पर खड़ा करना होगा।

दूसरा, आरक्षण का स्वरूप स्थायी न होकर गतिशील होना चाहिए। यह व्यवस्था उन लोगों तक सीमित हो जो वास्तव में वंचित और अंतिम पायदान पर खड़े हैं। जिन जातियों ने इतिहास में सामर्थ्य, राज्यसत्ता और सम्पन्नता प्राप्त की है, उन्हें “जन्मना पिछड़ा” मानकर लाभ देना अन्याय है। अतः आरक्षण का आधार केवल आर्थिक और शैक्षणिक पिछड़ापन होना चाहिए, न कि जन्मना जातिगत पहचान।

तीसरा, निजी क्षेत्र में आरक्षण लागू करने का प्रयास राष्ट्रविनाशक होगा। इस क्षेत्र को मुक्त रखना अनिवार्य है, ताकि निवेश, नवाचार और रोजगार का प्रवाह बना रहे। यदि निजी उद्योग ठप हो गए, तो न तो आरक्षण का लाभ मिलेगा और न ही विकास सम्भव होगा।

चौथा, समाज को यह समझना होगा कि जातीय राजनीति का अंतिम लाभ बाहरी शक्तियाँ उठाएँगी। इसलिए हिन्दू समाज को जातिगत विभाजन से ऊपर उठकर अपनी साझा सांस्कृतिक अस्मिता को पुनः जाग्रत करना होगा। परिवार, परम्परा और धर्म ही हमारे लिए वह सूत्र हैं, जो इस संकट से उबार सकते हैं।

पाँचवाँ, राज्य को चाहिए कि वह समान अवसर की व्यवस्था शिक्षा, स्वास्थ्य और उद्यमिता में उपलब्ध कराए। यदि गरीब और पिछड़े बच्चे को अच्छी शिक्षा, प्रशिक्षण और रोजगार के अवसर मिलेंगे, तो वह स्वयं समाज की मुख्यधारा में आ जाएगा, बिना किसी स्थायी आरक्षण के।

भारत आज एक ऐतिहासिक चौराहे पर खड़ा है। एक ओर वह मार्ग है, जो जातिगत आँकड़ों और कल्चरल मार्क्सवाद की क्रिटिकल रेस थ्योरी के आधार पर समाज को स्थायी संघर्ष में झोंक देगा। और दूसरी ओर वह मार्ग है, जो सनातन धर्म की दृष्टि से सबको साथ लेकर चलता है।

यदि हम समय रहते सजग न हुए, तो भारत का सामाजिक ढाँचा ढह सकता है। परंतु यदि हम अपनी सनातन चेतना के आधार पर न्याय, करुणा और समान अवसर की नीति अपनाएँ, तो यह संकट टल सकता है।

राष्ट्र की अखण्डता, समाज की एकता और संस्कृति की रक्षा का मार्ग केवल यही है—जातिगत राजनीति का परित्याग और धर्माधिष्ठित, सहयोगमूलक समाज-व्यवस्था की पुनः स्थापना।

दीपक कुमार द्विवेदी

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