सांस्कृतिक जागरण के उपरान्त आर्थिक जागरण का अनिवार्य आह्वान
भारत की आत्मा केवल यज्ञ और तपस्या की भूमि में ही नहीं बसती, वह अपने उद्यमी मानस और व्यवसायी प्रवृत्ति में भी उतनी ही प्रखरता से प्रकट होती है। सहस्राब्दियों तक यह भूमि केवल कृषि पर निर्भर नहीं रही, अपितु निर्यात‑आधारित, विकेन्द्रीकृत आर्थिक व्यवस्था पर फलती‑फूलती रही। यहाँ का हर ग्राम, हर नगर शिल्प और व्यापार का केन्द्र था। हमारे व्यापारी जब सुदूर समुद्रों को पार कर अपने वस्त्र, मसाले, रत्न और लघु उद्योग के उत्पाद बेचने जाते, तो वहाँ केवल व्यापार ही नहीं, अपितु सनातन संस्कृति का अमिट चिह्न भी छोड़ आते। यही कारण था कि इस्लामी आक्रमणों से पूर्व, लगभग 1000 ईस्वी में भारत विश्व की सकल घरेलू उत्पाद का 30 से 33 प्रतिशत योगदान देता था। विश्व की अर्थव्यवस्था का यह स्वर्णयुग भारतीय श्रम, प्रतिभा और उद्यमिता का प्रत्यक्ष प्रमाण था।
किन्तु समय का प्रवाह बदलता गया। मुग़ल काल आते‑आते यह आँकड़ा घटकर 24 प्रतिशत पर आ गया। फिर अंग्रेजों के दो सौ वर्षों के शासन ने भारत को उस स्थिति में पहुँचा दिया कि 1947 में हमारा वैश्विक योगदान मात्र 4.2 प्रतिशत रह गया, और औद्योगिक उत्पादन में भारत का हिस्सा 25 प्रतिशत से गिरकर केवल 2 प्रतिशत तक सीमित हो गया। यह कोई प्राकृतिक घटना नहीं थी, न ही ब्राह्मणों के रोज़गार छीनने का परिणाम। यह सुनियोजित औपनिवेशिक लूट थी, जिसने भारत की आत्मनिर्भरता की रीढ़ तोड़ दी।
कुटीर उद्योगों का वध
अंग्रेजों के आगमन से पूर्व प्रत्येक गाँव आत्मनिर्भर था—लोहार अपने औजार गढ़ता, कुम्हार मिट्टी को सोना बनाता, बुनकर हाथों से विश्वविख्यात वस्त्र बुनता, वैद्य लोकसेवा में समर्पित रहता। किन्तु 1813 के चार्टर एक्ट ने भारत के हस्तशिल्प पर भारी करों का बोझ डाला और ब्रिटिश मिलों में बने कपड़े यहाँ बिना शुल्क के थोप दिए गए। परिणाम यह हुआ कि 1830 के दशक तक हजारों बुनकर और शिल्पकार अपनी आजीविका खो बैठे। इतिहास साक्षी है, बंगाल में घरों के हाथ काट दिए गए ताकि इंग्लैंड के कपड़ा उद्योग के सामने भारतीय वस्त्रकार कोई चुनौती न रह जाए।
इस बीच अकालों की त्रासदी ने देश को झकझोर दिया। 1770, 1870–78 और 1897–1900 के बीच आए अकालों में लगभग 3 करोड़ लोग भूख से मर गए, जबकि भारत के अनाज का निर्यात ब्रिटेन होता रहा। औपनिवेशिक नीतियों ने समृद्ध ग्राम्य उद्योगों को समाप्त कर भारत को कच्चे माल का गुलाम बना दिया।
डेड इकोनॉमी भारतीय समाजवाद की विरासत
आज जब विश्व राजनीति के सबसे शक्तिशाली मंच से अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत की अर्थव्यवस्था को ‘डेड इकोनॉमी’ कहने का दुस्साहस करते हैं, और भारत की संसद के बाहर राहुल गांधी उसी स्वर में कहते हैं कि ट्रंप सही कह रहे हैं, भारत की अर्थव्यवस्था डेड है; तब यह कथन करते हुए राहुल गांधी उस ऐतिहासिक भूल की प्रतिध्वनि दोहराते हैं, जो स्वतंत्रता के पश्चात् इस देश की आर्थिक दिशा निर्धारण में की गई थी और जिसकी कीमत आज भी हम चुका रहे हैं।
भारत की स्वतंत्रता का क्षण केवल राजनीतिक दासता से मुक्ति का उत्सव नहीं था। वह उस राष्ट्र के पुनरुत्थान का व्रत था जिसने सहस्त्राब्दियों तक ज्ञान, विज्ञान और समृद्धि का प्रकाश पूरी दुनिया में फैलाया था। परंतु दुर्भाग्य यह रहा कि 1947 में मिली आज़ादी के बाद जिस मार्ग का चुनाव किया गया, उसने इस स्वर्णिम परंपरा को पुनर्जीवित करने के बजाय आर्थिक जकड़न और समाजवादी ठहराव की गहराई में धकेल दिया।
समाजवाद का जाल और मरणासन्न अर्थव्यवस्था
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सोवियत मॉडल को आर्थिक न्याय का साधन मानकर अपनाया। उद्योग-व्यवसायों पर सरकारी शिकंजा कस दिया गया। हर नवाचार, हर निवेश सरकारी लाइसेंस और अनगिनत हस्ताक्षरों की दया पर निर्भर हो गया। उद्यमी अपराधी समझे जाने लगे, व्यापार को शोषण का प्रतीक बताया जाने लगा।
1970 और 80 के दशक में जब पूरी दुनिया औद्योगिक क्रांति की नई लहर पकड़ रही थी, भारत 2–3 प्रतिशत की वृद्धि दर में सड़ रहा था। महंगाई 20–25 प्रतिशत तक पहुँच चुकी थी। कर-प्रणाली इतनी अन्यायपूर्ण थी कि एक लाख रुपये कमाने वाला 98 हजार रुपये टैक्स में चुका देता। शेष बचे जीवन को लालफीताशाही और भ्रष्टाचार चूस लेते।
डॉ. भीमराव अंबेडकर ने संविधान सभा में स्पष्ट कहा था
"राज्य की नीतियाँ समय और परिस्थितियों के अनुसार जनता को स्वयं तय करनी चाहिए, इसे संविधान में बांधना लोकतंत्र को नष्ट कर देगा।"
फिर भी आपातकाल (1975–77) के अंधकार में 42वाँ संविधान संशोधन लाया गया, जिसमें ‘समाजवादी’ और ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्द जबरन जोड़े गए। विपक्ष जेलों में ठूँस दिया गया, मीडिया पर सेंसरशिप लगी, और लोकतंत्र की आत्मा को कुचल दिया गया। यह वही कालखंड था जब भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व की सबसे धीमी गति की ‘डेड इकोनॉमी’ कहा जाने लगा। 1947 से 1990 तक विकास दर 3 प्रतिशत से अधिक कभी नहीं हुई, महँगाई दर 20–25 प्रतिशत पर पहुँच गई, टैक्स संरचना इतनी दमनकारी थी कि आय का 90–98 प्रतिशत तक करों में चला जाता था।
इस आर्थिक मृत्यु का सामाजिक प्रभाव भी कम भयानक नहीं था। सरकारी नौकरी जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि बन गई। विवाह संबंध उसी पर आधारित होने लगे। “सरकारी दूल्हा” दुर्लभ वस्तु की तरह था और उसकी कीमत दहेज में चुकाई जाती थी। जो परिवार यह कीमत न चुका सके, उनकी बेटियों को मिटा दिया जाता। 70 और 80 के दशक में दहेज हत्याओं की बाढ़ आ गई। एक पूरी पीढ़ी ने यह राक्षसी दौर देखा, और उसी विष को संस्कारों के रूप में अपनी अगली पीढ़ियों में उड़ेल दिया। समाजवाद केवल अर्थव्यवस्था का नहीं, मनुष्यता का भी हत्यारा साबित हुआ।
चूके हुए अवसर और खोया हुआ समय
जब चीन 1977-78 में अपनी कृषि और उद्योग को दुनिया के लिए खोलने का साहस कर रहा था, भारत सत्ता की कुर्सियों पर बैठे नेताओं की दूरदृष्टिहीनता में जकड़ा रहा। 1985 तक दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाएँ बराबर थीं। पर 2009 तक चीन वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला का 25 प्रतिशत हिस्सा बन गया और भारत अब भी समाजवाद की लाश ढो रहा था।
1991 में जब भारत दिवालियेपन की कगार पर पहुँचा, तब मजबूरी में उदारीकरण हुआ। पी.वी. नरसिम्हा राव और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकारों ने सुधारों की नींव डाली। मगर 2004 से 2014 तक कांग्रेस की यूपीए सरकार ने इन्हें रोक दिया। सुधारों पर NAC जैसी संस्थाओं ने कुंडली मारकर बैठना शुरू किया। निवेशक भाग गए, उद्यमिता फिर दम तोड़ने लगी।
सामाजिक संरचना का विकृति की ओर पतन
जब सरकारी नौकरी ही जीवन का चरम आदर्श बन गई, और निजी उद्यमिता दम तोड़ने लगी, तब समाज में एक विकृत संस्कृति का जन्म हुआ। विवाह के बाजार में सरकारी वर की कीमत बढ़ी, दहेज की प्रथा दानव बन गई। 1970–80 के दशक में दहेज के नाम पर बहुओं को जलाने की घटनाएँ बाढ़ की तरह बढ़ीं। भ्रूणहत्या और स्त्रियों के प्रति हिंसा बढ़ी। यही वह बीज था, जिसने आज के समाज में रिश्तों की कठोरता, धनलोलुपता और मूल्यहीनता को जन्म दिया। समाजवाद ने न केवल अर्थव्यवस्था का, बल्कि सामाजिक और नैतिक मूल्यों का भी संहार कर दिया है।
चीन और भारत: एक तुलनात्मक दृष्टि
1985 में भारत और चीन की अर्थव्यवस्था लगभग बराबर थी। किन्तु चीन ने 1977–78 में साम्यवाद की बेड़ियाँ तोड़ दीं, कृषि सुधार और उदारीकरण को अपनाया, और आज वह विश्व आपूर्ति श्रृंखला का 25 प्रतिशत से अधिक हिस्सा है।
भारत लोकतांत्रिक होते हुए भी समाजवाद की लाश ढोता रहा। 1991 में पी.वी. नरसिम्हा राव और अटल बिहारी वाजपेई ने सुधारों का मार्ग खोला, किन्तु 2004–14 में सुधार फिर ठप पड़ गए। 2009 आते-आते चीन भारत से पाँच गुना आगे निकल चुका था।
1991–2004: नई हवा का झोंका
1991 में विदेशी मुद्रा भंडार कुछ ही दिनों का बचा था। भारत दिवालिया होने की कगार पर था। तब प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव और वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने साहस दिखाया। लाइसेंस-राज की दीवारें दरकने लगीं। निजी निवेश के दरवाजे खुले। उद्यमिता ने साँस लेना शुरू किया।
अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में दूरसंचार क्रांति, राष्ट्रीय राजमार्ग परियोजनाएँ और आईटी सेक्टर का उदय हुआ। अर्थव्यवस्था में 6–7% की वृद्धि दर आई। युवाओं के लिए अवसर बढ़े, उद्योगों में निवेश लौटने लगा। यह पहली बार था जब भारत ने वैश्विक बाजार में फिर से अपने कदम बढ़ाने शुरू किए।
2004–2014: ठहराव और भ्रष्टाचार का दशक
उम्मीद थी कि सुधारों की गति और तेज़ होगी। परंतु 2004 के बाद नीतिगत पक्षाघात और भ्रष्टाचार ने अर्थव्यवस्था को जकड़ लिया। 2G स्पेक्ट्रम घोटाला, कोयला ब्लॉक घोटाला, कॉमनवेल्थ खेल घोटाला – इन कांडों ने भारत की छवि धूमिल कर दी। निवेशकों का भरोसा टूटा।
भूमि अधिग्रहण पर रुकावटें, पर्यावरणीय मंजूरियों की आड़ में उद्योगों का रोका जाना, किसान और मजदूर यूनियनों का राजनीतिक हथियार के रूप में उपयोग – इन सबने औद्योगिकरण की गति को रोक दिया। GDP वृद्धि दर औसतन 6.8% रही, परंतु ठोस नीतिगत सुधार न होने से भारत चीन से मीलों पीछे छूट गया। 1985 में जो चीन हमारे बराबर था, 2010 आते-आते वह वैश्विक सप्लाई चेन का 25% हिस्सा बन चुका था, और हम घोटालों में फँसे थे।
ऐसे परिदृश्य में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का बयान आता है। उन्होंने भारत की अर्थव्यवस्था को “डेड इकोनॉमी” कह डाला और भारत से आयातित वस्तुओं पर नए शुल्क लगाने का ऐलान कर दिया। यह केवल आर्थिक दबाव बनाने की चाल नहीं थी, बल्कि हमारी दशकों पुरानी नीतिगत विफलताओं का वैश्विक खुलासा था।
राहुल गांधी ने इस बयान का समर्थन करते हुए कहा कि “ट्रंप गलत नहीं हैं। मोदी जी ने देश की अर्थव्यवस्था को समाप्त कर दिया।” उन्होंने नोटबंदी, दोषपूर्ण GST, MSMEs की तबाही और किसानों की दुर्दशा को कारण बताया। पर वे यह बताना भूल गए कि 1947 से 1990 तक की डेड इकोनॉमी उनकी पार्टी की ही देन थी। वही समाजवादी प्रयोग, वही लालफीताशाही और वही भ्रष्टाचार जिसने भारत को पिछड़ा रखा, कांग्रेस की नीतियों की विरासत थी।
आज के संकट का बीज उन्हीं दशकों में बोया गया था। मोदी सरकार सुधारों की कोशिश कर रही है, लेकिन चालीस वर्षों की गलत दिशा को दस वर्षों में पूरी तरह पलटना संभव नहीं। फिर भी राजनीति का खेल यही है—जिन्होंने बीमार शरीर बनाया, वही आज इलाज पर सवाल उठा रहे हैं।
2014–2025: पुनरारंभ और नई उम्मीद
2014 में नरेंद्र मोदी सरकार के आने के बाद सुधारों का नया दौर शुरू हुआ। GST ने कर ढाँचे को सरल किया, दिवालियापन कानून ने उद्योगों में अनुशासन लाया। डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया, स्टार्टअप इंडिया जैसी योजनाओं ने उद्यमिता को पुनर्जीवित किया। आधारभूत संरचना में निवेश अभूतपूर्व रूप से बढ़ा।
विदेशी निवेश (FDI) ने नया रिकॉर्ड बनाया – 2014 से 2024 के बीच $500 बिलियन से अधिक निवेश आया, जो 2004-14 के मुकाबले दोगुना था। बेरोजगारी दर 2014 के 7.6% से घटकर 2024 में 4.2% रह गई। भारत विश्व की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बना और 2025 की पहली तिमाही में 7.4% की वृद्धि दर हासिल की।
फिर भी चुनौतियाँ बरकरार हैं। सरकारी नौकरी का मोह समाज की मानसिकता में गहराई से बैठा है। जातिगत जनगणना और आरक्षण की राजनीति प्रतिभा को बाँध रही है। उद्यमिता अभी भी सामाजिक सम्मान की ऊँचाई तक नहीं पहुँची।
भारत की आर्थिक यात्रा का यह सत्य किसी विदेशी राष्ट्रपति या विपक्षी नेता के कहने से प्रमाणित नहीं होता। यह हमारे अपने इतिहास का आईना है। जब तक हम समाजवाद की जकड़न से मुक्त होकर सनातनी आर्थिक दृष्टिकोण को पुनर्जीवित नहीं करते, जहाँ श्रम का सम्मान हो, उद्यमिता को पूज्य समझा जाए, और अवसर सबके लिए समान हों, तब तक यह तंज बार-बार हमारे माथे पर लिखा जाएगा।
चीन, जो स्वयं को साम्यवादी अर्थात समाजवादी कहता आया, उसने समय के साथ उस समाजवाद का परित्याग कर आर्थिक उदारवाद एवं पूँजी-संचालित विकास का मार्ग अपना लिया। परंतु हम लोकतांत्रिक राष्ट्र होकर भी समाजवाद की जकड़न से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाए। परिणामस्वरूप आज हमारी नीतियाँ, हमारी राजनीति तथा हमारी सामाजिक चेतना उसी बोझ तले दबकर दिशाहीन होती जा रही है।
आज हम जातिगत जनगणना की दलदल में फँसे हैं। आँकड़े आएंगे, उसके बाद आरक्षण की सीमाएँ और बढ़ाने की मांग उठेगी। इसे 'सामाजिक न्याय' का नाम देकर प्रतिभा एवं उद्यमिता का दमन किया जाएगा। सरकारी नौकरी को जीवन की परम सफलता मान लिया गया है – क्योंकि उससे विवाह में 'अच्छी लड़की' और 'दहेज' मिलने की आशा बँधती है। वहीं एक स्वावलंबी उद्यमी अथवा व्यवसायी को आज भी 'चोर-ठग' समझा जाता है।
इक्कीसवीं शताब्दी की दुनिया कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) से लेकर अन्य ग्रहों पर मानव बस्तियाँ बसाने की चर्चा कर रही है; क्वांटम भौतिकी के नये आयाम खोल रही है। और हम? हम अब भी 'जिसकी जितनी जनसंख्या उसकी उतनी हिस्सेदारी' जैसे आत्मघाती घोषणाओं में उलझे हुए हैं, आरक्षण की नई सीमाएँ तय करने में व्यस्त हैं। विश्व अपने राष्ट्रों को आर्थिक महासत्ता बनाने में तत्पर है और हम समाजवाद एवं सेकुलरवाद की लाश ढोते फिर रहे हैं।
जो भी आर्थिक विकास भारत में हुआ है, उसका श्रेय 1991 के उदारीकरण के बाद की नीतियों को जाता है। इसमें श्री पी. वी. नरसिम्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी तथा 2014 से 2024 तक नरेंद्र मोदी जी की सरकारों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। शेष कांग्रेस-शासित दशकों में नेहरूवादी समाजवाद ने राष्ट्र की अर्थव्यवस्था को जकड़ कर दिवालियेपन की ओर ढकेला। 1947 से 1990 तक की 'डेड इकोनॉमी' की स्थिति में कांग्रेस का एकछत्र शासन था। राहुल गांधी आज 'आर्थिक संकट' की बातें करते हैं, परंतु उनके नाना, दादी और पिता के काल में समाजवाद की चाशनी में डूबा यह देश आज की पीढ़ी को बेबस कर गया। रोजगार का अर्थ 'सिर्फ सरकारी नौकरी' तक सीमित कर दिया गया, उद्यमिता का गला घोंटा गया, आरक्षण एवं सरकारी तंत्र ने प्रतिभा का निर्मम दमन किया। परिणामस्वरूप प्रतिभाशाली युवाओं का विदेशों की ओर पलायन हुआ और आगे और बढ़ेगा, क्योंकि हमारे लिए राष्ट्र का सामर्थ्य नहीं, केवल सत्ता का संरक्षण ही सर्वोच्च लक्ष्य बना रहा। 1947 में देश का विभाजन हुआ, तब भी हमने नहीं सीखा। 1990 में आर्थिक पतन हुआ, तब भी नहीं सुधरे। आज अवसर मिला है तो जातिगत गणनाओं के आधार पर राष्ट्र को फिर से बाँटने की तैयारी कर रहे हैं। समाजवाद ऐसी मानसिकता गढ़ता है जो मनुष्य से सोचने-समझने की शक्ति तक छीन लेता है।
यह युग समाजवाद और सेकुलरवाद जैसी पश्चिम प्रेरित अवधारणाओं से मुक्त होने का युग है। यह युग आर्थिक स्वतंत्रता, धार्मिक स्वाधीनता और जन-जागरण का है। यह अपने मूल सनातन धर्म-आधारित आर्थिक सिद्धांतों की ओर लौटने का युग है। यह युग उद्यमिता को प्रोत्साहन देने का, प्रतिभा का सम्मान करने का और एक शक्तिशाली, आत्मनिर्भर भारत के निर्माण का है। अब भारत को केवल “सोने की चिड़िया” बनकर समृद्धि का प्रतीक भर नहीं रहना है, बल्कि “सिंह” बनकर अपने तेज, पराक्रम और स्वाभिमान से विश्व के मंच पर दहाड़ना है। भारत को ऐसा राष्ट्र बनना है जो केवल धन-संपन्न न होकर सामर्थ्य, बल, धर्म और नीति में भी अद्वितीय हो – जो शोषण का शिकार न बने, अपितु अन्याय का प्रतिकार कर सके और विश्व का मार्गदर्शन करने में सक्षम हो।
✍️ दीपक कुमार द्विवेदी
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