सनातन आर्थिक प्रतिमान और परिवार व्यवस्था

भारतीय आर्थिक चिन्तन का मूल सदैव स्थानीयकरण और विकेन्द्रीयकरण के सिद्धान्तों पर आधारित रहा है। इस प्रतिमान का हृदय परिवार है—वह सजीव कोशिका, जो केवल निजी सम्बन्धों का ताना-बाना नहीं है, अपितु उपभोग और उत्पादन दोनों का संतुलन साधने वाली नींव है। परिवार ही वह केन्द्र है जहाँ से आत्मनिर्भरता केवल आर्थिक लक्ष्य न होकर सांस्कृतिक जीवन-पद्धति के रूप में विकसित होती है।

कल्पना कीजिए—एक संयुक्त परिवार यदि एक ही छत के नीचे निवास करता हो तो वह वर्षभर का अन्न संचित कर सकता है और समीपवर्ती चक्की पर उसे पिसवाकर न केवल अपनी आवश्यकता पूरी करता है, बल्कि स्थानीय व्यवसाय को भी जीवित रखता है। यही सनातन व्यवस्था है, जहाँ अर्थव्यवस्था परिवार और समुदाय के प्राकृतिक जीवन-चक्र में समाहित होती है। किंतु जब परिवार बिखर जाता है और मनुष्य अकेलेपन का जीवन जीने को विवश होता है, तब न तो गृह-भण्डारण सम्भव रह जाता है, न ही रसोई का चूल्हा जलता है। उसके स्थान पर कृत्रिम सेवाएँ—जैसे जमैटो और स्विगी—जीवन का सहारा बन जाती हैं। यह सुविधा भले क्षणिक लगे, किन्तु इसके भीतर एक गहरी सांस्कृतिक दरार छिपी है।

सदियों तक परिवार ही कुटीर उद्योगों और मिश्रित कृषि की धुरी रहा है। श्रम, सहयोग और सहभागिता का सामूहिक स्वरूप ही इन उद्यमों की जीवन-रेखा था। इसीलिए यह तथ्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि परस्पर विरोधी धारा के प्रतिनिधि—चाहे वे परम्परा की आलोचना करने वाले पूँजीवादी चिन्तक मैक्स वेबर हों अथवा केंद्रीकरण का सिद्धान्त प्रतिपादित करने वाले वामपंथी दार्शनिक कार्ल मार्क्स—दोनों इस निष्कर्ष पर सहमत थे कि किसी समाज को यदि पूर्णतः केंद्रीकृत व्यवस्था की ओर ले जाना है, तो सर्वप्रथम परिवार व्यवस्था को तोड़ना अनिवार्य है।

यहीं हमारी वर्तमान विडम्बना स्पष्ट होती है। एक ओर शासन “वोकल फॉर लोकल” और “स्वदेशी” के उद्घोष करता है, दूसरी ओर ऐसे विधान और सामाजिक प्रवाह उत्पन्न करता है जो परिवार संस्था को निरन्तर दुर्बल करते हैं। नारीवाद के नाम पर सहजीवन (लिव-इन), वेश्यावृत्ति और पर-पुरुष संग को परोक्ष वैधता दी जा रही है। कन्याओं को परिवार के संरक्षण से अलग कर केवल नौकरी के क्षेत्र तक सीमित करने का आग्रह किया जा रहा है। “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” जैसे नारे हिन्दू समाज को दोषी ठहराने की भ्रान्ति फैलाते हैं, मानो उसने ही सदैव कन्या-वध किया हो, जबकि सनातन संस्कृति में नारी को माता, देवी और धर्मसंरक्षिका के रूप में पूजित किया गया है।

शिक्षा भी आज केवल डिग्रियों के व्यापार तक सीमित कर दी गई है, जो युवाओं का समय और ऊर्जा तो खा लेती है, पर उन्हें न परिवार से जोड़ती है और न ही संस्कृति से। ऑपरेशन सिंदूर जैसी मुहिमों में जिन स्त्रियों को प्रतीक बनाकर प्रस्तुत किया गया, उनका जीवन न तो सनातन स्त्री-आदर्श से जुड़ा था और न ही गृहस्थ धर्म से। यह सब योजनाबद्ध चालें थीं, जिनका उद्देश्य स्त्री को उसके स्वाभाविक धर्म से विमुख कर परिवार को भीतर से विखण्डित करना था।

अतः हमारे सम्मुख दो परस्पर विरोधी प्रवृत्तियाँ खड़ी हैं। एक ओर स्थानीयकरण और स्वदेशी का गौरवगान किया जा रहा है, और दूसरी ओर उसी परिवार व्यवस्था को नष्ट किया जा रहा है, जो इन सिद्धान्तों का प्राण है। यह या तो मतदाताओं को भरमाने का सुविचारित षड्यन्त्र है अथवा नीति-निर्माताओं की गहरी अज्ञानता और मूर्खता का परिणाम।

सनातन आर्थिक प्रतिमान इस सत्य की उद्घोषणा करता है कि जब तक परिवार सुदृढ़ है, तभी तक स्थानीयकरण और विकेन्द्रीयकरण सम्भव है। परिवार ही समाज का बीज है, संस्कृति की जड़ है और आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था का प्राण है। यदि परिवार बिखर जाएगा तो समाज, संस्कृति और अर्थव्यवस्था—तीनों ही ध्वस्त हो जाएँगे।

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