भारतवर्ष (आर्यव्रत) – संसार का प्राचीन देश
भारतवर्ष, जिसे आर्यव्रत के नाम से भी जाना जाता है, संसार के प्राचीनतम देशों में सम्मिलित है। यह भूमि ऋषियों, मुनियों, साधुओं और गुरुओं का देश रही है। यही वह पवित्र देश है, जहां मानवता का पहला जन्म हुआ और जिसने विश्वगुरु के रूप में अपनी महत्ता स्थापित की। समय के प्रवाह में अखंड भारत अनेक बार खंडित हुआ। इसके अभिन्न अंग रहे पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, तिब्बत, श्रीलंका, म्यांमार, अफ़गानिस्तान, ईरान, तजाकिस्तान, बर्मा और इंडोनेशिया। यहां तक कि मलेशिया, फिलीपींस, थाईलैंड, दक्षिणी वियतनाम, कंबोडिया आदि भी ऐतिहासिक रूप से अखंड भारत के विस्तार में सम्मिलित थे।
भारत पर बाह्य आक्रमण
लगभग 2500 वर्ष पूर्व हमारे देश पर विभिन्न विदेशी आक्रमणकारी आए। इनमें विशेष रूप से फ्रांसीसी, डच, कुशाण, शक, हूण, यवन (यूनानी) और अंग्रेज प्रमुख थे। इन आक्रमणों के फलस्वरूप भारत के 24 क्षेत्र अलग हो गए और वे अलग-अलग पड़ोसी राष्ट्रों का रूप धारण कर गए।
अफगानिस्तान (उपगणस्थान) का इतिहास और विभाजन
अफगानिस्तान का प्राचीन नाम उपगणस्थान था। इसका निर्माण कंधार और कंबोज के कुछ भागों के मेल से हुआ। इस प्रदेश में प्रारंभ में हिंदू, शाही और पारसी राजवंशों का शासन रहा। बाद में बौद्ध धर्म का प्रचार हुआ और कई राजा भी बौद्ध धर्म के अनुयायी बने। सिकंदर महान ने यहां आक्रमण किया। सातवीं शताब्दी में अरब और तुर्कों के मुसलमानों ने आक्रमण किया। बाद में दिल्ली के मुस्लिम शासकों ने अपनी सत्ता स्थापित की और ब्रिटिश काल से पहले यह क्षेत्र विभाजित हो चुका था। 18 अगस्त 1947 को अंग्रेजों ने अफगानिस्तान को स्वतंत्र घोषित किया, और यह भारत से अलग हो गया।
नेपाल का विभाजन और इतिहास
नेपाल, जिसे देवघर के नाम से भी जाना जाता था, अखंड भारत का हिस्सा रहा। माता सीता का जन्म मिथिला (नेपाल) में हुआ और भगवान बुद्ध का जन्म लुम्बिनी में हुआ। प्रारंभ में यह क्षेत्र 1560 ई. पूर्व हिंदू आर्यों के शासन में रहा। चौथी शताब्दी में यह गुप्त साम्राज्य के अधीन आया। सातवीं शताब्दी में तिब्बत का प्रभाव स्थापित हुआ। 11वीं शताब्दी में नेपाल में ठाकुर वंश, इसके बाद मल्ल वंश और फिर गोरखा राज आया। अंग्रेजों ने 1904 में सुगौली संधि के माध्यम से नेपाल पर आंशिक नियंत्रण स्थापित किया, और 1923 में इसे पूर्णतः स्वतंत्र घोषित किया। सन् 1991 में नेपाल ने बहुदलीय लोकतंत्र अपनाया और राजशाही का अंत हुआ। वर्तमान में नेपाल धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है।
तिब्बत (त्रिविष्टय) का इतिहास
अखंड भारत में तिब्बत का नाम त्रिविष्टय था। त्रिविष्टय में रिशिका और तुषाण नामक राज्य स्थित थे। प्रारंभ में यहां हिंदू धर्म और बाद में बौद्ध धर्म का प्रचार हुआ। तिब्बत बौद्ध धर्म का प्रमुख केंद्र बन गया। सन् 1207 में साक्यवंशियों का शासन प्रारंभ हुआ। 19वीं शताब्दी तक तिब्बत ने अपनी स्वतंत्र सत्ता बनाए रखी। 1907 में ब्रिटिश इंडिया और चीन के बीच बैठक हुई, जिससे तिब्बत को दो भागों में बाँट दिया गया—पूर्वी भाग चीन के अधीन और दक्षिणी भाग लामा के अधीन।
भूटान का इतिहास
भूटान भौगोलिक दृष्टि से भारत का अभिन्न अंग रहा है। इसका नाम संस्कृत से उत्पन्न हुआ है। यहां वैदिक और बौद्ध धर्म के अनुयायी रहते हैं। 1906 में अंग्रेजों ने सिक्किम और भूटान पर प्रभाव स्थापित किया। 1949 में स्वतंत्र भारत ने ब्रिटिश अधिकार वाली सभी भूमि भूटान को सौंप दी और रक्षा एवं सामाजिक सुरक्षा की गारंटी दी।
ब्लूचिस्तान का इतिहास और विभाजन
ब्लूचिस्तान भारत की सोलह प्रांतों में से एक था और गंधार राज्य का हिस्सा रहा। 321 ई. पूर्व यह चंद्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य में सम्मिलित था। 711 ई. में मोहम्मद बिन कासिम ने इसे विजय किया, इसके बाद महमूद गजनवी और मुगल काल में अकबर के अधीन आ गया। अंग्रेजों ने इस क्षेत्र को चार रियासतों—कलात, मकराना, लसबेला और खारन—में विभाजित किया। 1939 में मुस्लिम लीग और अंजुमन-ए-वतन का जन्म हुआ। 11 अगस्त 1947 को ब्लूचिस्तान स्वतंत्र हुआ, लेकिन पाकिस्तान ने बाद में कलात, मकराना, लसबेला और खारन पर कब्जा कर लिया।
म्यांमार (ब्रह्मदेश) और श्रीलंका का इतिहास
म्यांमार और श्रीलंका वैदिक और बौद्ध परंपराओं को मानने वाले देशों में सम्मिलित थे। म्यांमार का क्रमबद्ध इतिहास 1044 ई. में मियान वंश से प्रारंभ होता है। सन् 1287 में कुबला खाँ ने और 1754 में अलोंगपाया ने इस पर कब्जा किया। अंग्रेजों ने 1926–1886 तक सम्पूर्ण ब्रह्मदेश पर अधिकार स्थापित किया और 1937 में म्यांमार को स्वतंत्र राजनीतिक इकाई माना। 1965 में श्रीलंका को अलग राज्य घोषित किया गया।
खंडित भारत को पुनः अखंड बनाने की दिशा
यदि हम इतिहास की भूलों से स्पष्ट शिक्षा लें, तो भारत का पुनः अखंड होना सैद्धांतिक रूप से संभव है। किंतु वर्तमान समय में यह लक्ष्य केवल धनबल या सैन्य शक्ति के आधार पर नहीं प्राप्त किया जा सकता, क्योंकि जिन शक्तियों के सामने भारत खड़ा है, वे न केवल संसाधनों में, बल्कि संगठन और विचारधारा में भी अत्यंत सशक्त हैं। अतः इस संघर्ष का प्रथम चरण वैचारिक युद्ध है। इस युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए समाज का आर्थिक, सामाजिक, वैचारिक, राजनैतिक और सामरिक दृष्टि से सुदृढ़ होना अनिवार्य है।
वैचारिक युद्ध
वैचारिक युद्ध में सफलता के लिए सबसे पहले अपनी मूल चेतना को पहचानना आवश्यक है। यह मूल चेतना सनातन धर्म है—जो इस ब्रह्मांड का शाश्वत, सार्वभौमिक और अपरिवर्तनीय नियम-तंत्र है। यह किसी व्यक्ति, मत या कालखंड पर आधारित नहीं, बल्कि सृष्टि के आरंभ से विद्यमान है और सृष्टि के अंत तक रहेगा।
वर्तमान में विरोधी विचार-तंत्र, विज्ञान का नाम लेकर हमारे शास्त्रीय ज्ञान को अवैज्ञानिक सिद्ध करने का प्रयास करते हैं, जबकि वैदिक परंपरा में खगोलशास्त्र, गणित, चिकित्सा और प्रकृति-विज्ञान के विस्तृत और संगत वर्णन उपलब्ध हैं। उदाहरणस्वरूप, वेदांग ज्योतिष और पुराणों में दी गई कालगणना के अनुसार वर्तमान सृष्टि की आयु लगभग 1,96,53,67,124 वर्ष मानी जाती है। यह गणना आंतरिक रूप से गणितीय संगति रखती है और किसी भी सीमित ऐतिहासिक अवधारणा से कहीं व्यापक है।
जब इस प्रकार के शास्त्रीय और वैज्ञानिक प्रमाण व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत किए जाएंगे, तब विरोधी विमर्श का तर्क-आधार स्वतः कमजोर होगा। यह प्रक्रिया न केवल विचार-स्तर पर विजय है, बल्कि व्यापक सांस्कृतिक पुनःस्थापना की पूर्वपीठिका भी है।
नैरेटिव निर्माण और इको-सिस्टम
वैचारिक विजय के बाद अगला चरण है—नैरेटिव निर्माण। इसका अर्थ है वैश्विक विमर्श की दिशा और संदर्भ अपने नियंत्रण में लेना। इसके लिए एक मज़बूत सनातनी इको-सिस्टम का निर्माण आवश्यक है।
यह इको-सिस्टम थिंक टैंक पर आधारित होना चाहिए—ऐसे संस्थान जो समाज, राजनीति, अर्थव्यवस्था और इतिहास पर शोध करें और ठोस नीतियाँ तैयार करें। वर्तमान भारत में कम से कम 100 सक्षम थिंक टैंक होना आवश्यक है, जो दीर्घकालिक रणनीति और नीति-निर्माण में योगदान दें। केवल भावनात्मक प्रतिक्रिया से, बिना संगठन और ढाँचे के, इस संघर्ष में सफलता संभव नहीं है।
शिक्षा व्यवस्था और सांस्कृतिक पुनर्निर्माण
इतिहास साक्षी है कि विदेशी आक्रमणों के समय मंदिर और गुरुकुल पहले निशाने पर रहे। लाखों आचार्य और विद्वान मारे गए, किंतु वैदिक शिक्षा-प्रणाली समाप्त नहीं हुई। अंग्रेज़ी शासन ने इसे व्यवस्थित रूप से नष्ट करने का प्रयास किया और स्वतंत्रता के बाद भी अनुच्छेद 30(ए) जैसे प्रावधानों के माध्यम से हिंदू शिक्षण संस्थानों को सरकारी आर्थिक सहयोग से वंचित रखा गया।
मंदिरों को सरकारी नियंत्रण में लेने के कारण उनकी आय का उपयोग हिंदू समाज की शिक्षा और धर्म-प्रचार में न होकर अन्य प्रयोजनों में होता रहा। परिणामस्वरूप, धन के अभाव में सनातनी विचारक और संगठन अपने कार्यों का विस्तार नहीं कर पाए, जबकि विरोधी पक्ष संगठित रूप से अपने विमर्श को स्थापित करने में सफल हो गया।
अब आवश्यकता है कि मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त किया जाए, वैदिक शिक्षा प्रणाली को आधुनिक संदर्भ में पुनःस्थापित किया जाए, और भारतीय शिक्षा बोर्ड जैसे संस्थानों को संरचनात्मक रूप से सुदृढ़ किया जाए।
इतिहास का पुनर्लेखन और गौरव की पुनःस्थापना
स्वतंत्रता के बाद प्रचलित इतिहास-लेखन में अनेक स्थानों पर इस्लामी आक्रमणकारियों का महिमामंडन और भारत की प्राचीन संस्कृति को अविश्वसनीय या काल्पनिक बताने की प्रवृत्ति रही। इसका प्रत्यक्ष परिणाम यह हुआ कि नई पीढ़ी के मन में अपनी परंपरा के प्रति हीनभावना उत्पन्न हुई।
इस विकृति को ठीक करना केवल शैक्षणिक कार्य नहीं, बल्कि सांस्कृतिक स्वाभिमान की पुनःस्थापना का मूल है। प्रमाण-आधारित पुनर्लेखन के माध्यम से भारत की वास्तविक उपलब्धियाँ और प्राचीन गौरव पुनः समाज के सामने लाना आवश्यक है, जिससे भावी पीढ़ी अपने अतीत से प्रेरणा लेकर भविष्य के निर्माण में संलग्न हो सके।
भारत, सनातनी आर्थिक मॉडल और अखंड भारत का पथ
भारत का आर्थिक इतिहास इस सत्य का प्रमाण है कि जब-जब यहाँ सनातनी आर्थिक मॉडल का पालन हुआ, तब-तब यह भूमि केवल सम्पन्न ही नहीं, बल्कि विश्व का नेतृत्व करने वाली महाशक्ति के रूप में प्रतिष्ठित हुई। इस व्यवस्था की जड़ें वेद, उपनिषद, अर्थशास्त्र और धर्मशास्त्र की अमृतधारा में सिंचित हैं। इसका स्वरूप पूर्णतः विकेन्द्रित, धर्माधारित, आत्मनिर्भर और नवाचार-समर्थ है—एक ऐसी व्यवस्था, जिसमें सत्ता, उत्पादन और वितरण की शक्ति स्थानीय इकाइयों के पास होती है, जहाँ समाज का प्रत्येक वर्ग अपनी भूमिका निभाता है, और जिसमें शत-प्रतिशत रोजगार का स्वाभाविक सृजन होता है।
इतिहास के पृष्ठ पलटें तो रामायणकाल के रामराज्य में किसी भी व्यक्ति के पास बेरोजगारी का नाम तक न था। प्रत्येक नगर और ग्राम में कृषि, पशुपालन, हस्तशिल्प, नौकायन और व्यापार का संतुलित ढाँचा था, जो न केवल आर्थिक समृद्धि, बल्कि सामाजिक संतुलन का भी आधार था। गुप्त और विक्रमादित्य के युग में, जब पाटलिपुत्र और उज्जैन जैसे नगर अंतरराष्ट्रीय व्यापार के केन्द्र बने, तब भारत का वैश्विक GDP में योगदान 32 से 33 प्रतिशत तक पहुँच गया था। यद्यपि मौर्यकाल में प्रशासनिक केंद्रीकरण के कारण आर्थिक स्वतंत्रता में कमी आई, नवाचार की गति धीमी हुई और नैतिक-आध्यात्मिक मूल्यों में ह्रास दृष्टिगोचर हुआ। औपनिवेशिक शासन के आगमन से पहले, सन् 1700 में भारत वैश्विक GDP का लगभग 24% नियंत्रित करता था, किन्तु अंग्रेज़ी दासता के अंत तक यह घटकर 3% से भी नीचे पहुँच गया।
आज, आधुनिक वैश्विक पूँजीवाद के युग में, भारत लगभग 4 ट्रिलियन डॉलर के GDP के साथ विश्व का पाँचवाँ सबसे बड़ा अर्थतंत्र है, किन्तु बेरोज़गारी की औसत दर 7–8 प्रतिशत पर अटकी है। ग्रामीण और शहरी आय में गहरी खाई है, और हर 25–30 वर्षों में आने वाली वैश्विक आर्थिक सुनामी हमारे विकास को डगमगाती रहती है। परिवार टूट रहे हैं, सांस्कृतिक एकता कमजोर हो रही है—बिलकुल वैसे ही जैसे मौर्यकाल के पश्चात नास्तिकता और नैतिक पतन ने समाज को जकड़ लिया था।
सनातनी आर्थिक व्यवस्था का मूलमंत्र विकेन्द्रीकरण है—निर्णय-निर्माण, उत्पादन और वितरण का अधिकार स्थानीय इकाइयों के पास हो, ताकि कोई भी क्षेत्र केवल उपभोक्ता न रहकर उत्पादक भी बने। इसका लक्ष्य केवल लाभार्जन नहीं, बल्कि धर्म, न्याय और लोककल्याण है। प्रत्येक क्षेत्र अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं करे, बाहरी निर्भरता न्यूनतम रखी जाए, और पारंपरिक उद्योगों को आधुनिक तकनीक के साथ जोड़ा जाए, ताकि परंपरा और नवाचार साथ-साथ चल सकें। इस व्यवस्था में रोजगार का आधार कौशल होता है, जिससे श्रम और पूँजी का न्यायसंगत वितरण सुनिश्चित होता है।
यदि भारत इस सनातनी आर्थिक मॉडल को कृत्रिम बुद्धिमत्ता, ब्लॉकचेन और डेटा-साइंस जैसी आधुनिक तकनीकों से जोड़े, तो आगामी 15–20 वर्षों में GDP 16 से 18 ट्रिलियन डॉलर तक पहुँच सकती है। बेरोजगारी नगण्य रह जाएगी, ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों की प्रति व्यक्ति आय चार से पाँच गुना बढ़ सकती है, और वैश्विक व्यापार में भारत का हिस्सा 20% से अधिक हो सकता है। यह केवल आर्थिक पुनर्जागरण नहीं होगा, बल्कि अखंड भारत की सांस्कृतिक और राजनीतिक एकता को भी आर्थिक आधार प्रदान करेगा।
सरकार के लिए आवश्यक है कि शिक्षा और शोध में GDP का न्यूनतम 6% निवेश करे, प्रत्येक जिले में कौशल मानचित्रण और विकास मिशन चलाए, स्थानीय उद्योग और हस्तशिल्प को अंतरराष्ट्रीय बाज़ार से जोड़े, कृषि, उद्योग और सेवा क्षेत्रों में PPP मॉडल के माध्यम से निवेश को प्रोत्साहित करे, और एक धर्माधारित आर्थिक नीति आयोग की स्थापना करे, जो नीति-निर्माण में नैतिकता व सांस्कृतिक मूल्यों को सम्मिलित करे।
किन्तु इस मॉडल को एक साथ सम्पूर्ण रूप से लागू करना चुनौतीपूर्ण होगा। अतः इसकी शुरुआत शून्य-तकनीकी उत्पादों से करनी चाहिए—ऐसे उत्पाद, जिनके निर्माण में भारी मशीनरी, विशाल पूँजी या जटिल तकनीक की आवश्यकता न हो, बल्कि केवल स्थानीय संसाधन, पारंपरिक ज्ञान और मानव श्रम पर्याप्त हों। जैविक खाद्य, हस्तनिर्मित वस्त्र, मिट्टी और बाँस के शिल्प, आयुर्वेदिक औषधियाँ, गोबर-आधारित उत्पाद, प्राकृतिक साबुन-तेल, और घरेलू प्रसंस्कृत खाद्य सामग्री इसके उपयुक्त उदाहरण हैं। इनका उत्पादन गाँव, कस्बे और छोटे नगरों में तत्काल प्रारम्भ किया जा सकता है, जिससे स्थानीय स्तर पर शत-प्रतिशत रोजगार संभव है।
जब ऐसे छोटे-छोटे आर्थिक केंद्र विकसित होंगे और वहाँ से आय, रोजगार तथा सामाजिक संतुलन के सकारात्मक परिणाम सामने आएँगे, तब इस मॉडल को क्रमशः बड़े पैमाने पर लागू किया जा सकेगा। यह क्रमिक, व्यावहारिक और टिकाऊ दृष्टिकोण होगा, जो आर्थिक आत्मनिर्भरता की ठोस नींव रखेगा।
और जब भारत इस सनातनी आर्थिक मॉडल को अपनाकर आत्मनिर्भर, संतुलित और धर्माधारित महाशक्ति के रूप में खड़ा होगा, तब वह केवल “सोने की चिड़िया” बनकर मौन नहीं बैठेगा, बल्कि सिंह बनकर विश्व मंच पर दहाड़ेगा—एक ऐसी दहाड़, जो केवल आर्थिक सामर्थ्य की नहीं, बल्कि सांस्कृतिक, नैतिक और आध्यात्मिक शक्ति की होगी। यही दहाड़ अखंड भारत के स्वप्न को साकार करेगी।
समरिक शक्ति के बिना अखंड भारत का संकल्प पूर्ण करना क्यों कठिन है
हम चाहे वैचारिक और आर्थिक रूप से कितने भी सशक्त हों, लेकिन अगर हमारी समरिक (सैन्य) शक्ति कमजोर होगी, तो राष्ट्र की रक्षा और अखंड भारत के स्वप्न की सिद्धि असंभव है। इतिहास इसका गवाह है—जब-जब भारत की बाहुबल शक्ति कमज़ोर हुई, तब-तब उसकी विद्या, संस्कृति और समृद्धि विदेशी आक्रमणकारियों के हाथों लूट गई।
इसलिए आवश्यक है कि भारत समरिक शक्ति में महाशक्ति बने। इसके लिए रक्षा क्षेत्र में सुधार, आत्मनिर्भरता और उच्च तकनीकी क्षमता प्राप्त करना अनिवार्य है। अगले दस वर्षों में विदेशी हथियारों और उपकरणों पर निर्भरता समाप्त करना होगा। जैसा कहा गया है—"जो अपने अस्त्र-शस्त्र स्वयं नहीं बनाता, वह अपनी सुरक्षा का स्वामी नहीं होता।"
जब हमारी सेनाएँ अत्याधुनिक हथियारों से सुसज्जित होंगी और रक्षा क्षेत्र अजेय होगा, तब हम किसी भी संकट का सामना निडरता से कर सकेंगे। यही सनातन नियम है—"बलं मूलं राज्यस्य"। शक्ति ही राज्य का आधार है।
महाभारत में भी भीष्म पितामह कहते हैं—
"बलं धर्मस्य मूलं, धर्मो बलस्य साधनम्।
तयोः साधनमेकत्वं, न पृथक् सम्प्रवर्तते॥"
बल ही धर्म का मूल है और धर्म ही बल का साधन। दोनों का साथ होना अनिवार्य है। बिना शक्ति के धर्म की रक्षा संभव नहीं, और बिना धर्म के शक्ति अधर्म का हथियार बन जाती है।
चाणक्य नीति में भी स्पष्ट है—
"नित्यं युधाय सन्नद्धः क्षणं युद्धं प्रयोजयेत्।
अप्राप्ते च महानर्थे न शत्रुः परिशान्तये॥"
राज्य को सदा युद्ध के लिए तैयार रहना चाहिए; आवश्यकता पड़ने पर ही युद्ध करे, किन्तु बड़े संकट से पूर्व शत्रु को कभी हल्का न समझे।
भारतीय नीति और दर्शन में प्रचलित है—
"शस्त्रेणैव शास्त्रं रक्षेत् शस्त्रं विना न शास्त्रं रक्षते।"
अर्थात् शस्त्र के द्वारा ही शास्त्र की रक्षा होती है। बिना शक्ति के धर्म और ज्ञान की रक्षा असंभव है।
अखंड भारत का राष्ट्रधर्म और सांस्कृतिक आधार
अखंड भारत की संकल्पना का मूल सनातन धर्म है। यह केवल धार्मिक विश्वास नहीं, बल्कि हमारे जीवन, संस्कृति और राष्ट्रीय एकता का आधार है। सनातन धर्म ने सदियों तक इस उपमहाद्वीप को अपनी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पहचान दी है।
महर्षि अरविंदो ने 1911 में उत्तरपाड़ा के भाषण में कहा—"भारत का अस्तित्व सनातन धर्म से अविभाज्य है। सनातन धर्म का उत्थान ही अखंड भारत का उत्थान है। सनातन धर्म के बिना भारत का अस्तित्व कल्पनातीत है।" यह आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना तब था।
सनातन धर्म में हैं त्रिगुणात्मक सृष्टि के सिद्धांत, भगवान श्रीकृष्ण के कर्मयोग के उपदेश, और मनुस्मृति के धर्म के दस लक्षण, जो राष्ट्र को नैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक आधार देते हैं। यही तत्व अखंड भारत की आत्मा हैं।
हमें विदेशी-प्रेरित, संकीर्ण राष्ट्रवाद और सर्वभौम हिंदू आइडेंटिटी के भ्रम से ऊपर उठकर अपने प्राचीन वैदिक मूल्यों को राष्ट्रीय पहचान बनाना होगा। यही हमारा राष्ट्रधर्म है, और यही अखंड भारत की आधारशिला।
अखंड भारत केवल भौगोलिक विस्तार नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक और धार्मिक एकता का दर्पण है। यह क्षेत्र आज के भारत के साथ-साथ पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, तिब्बत, और दक्षिण-पूर्व एशिया के थाईलैंड, इंडोनेशिया, मलेशिया तक फैला हुआ था। इस भू-भाग की नींव सनातन वैदिक धर्म थी, जिसने हमारे समाज को जोड़ने वाला मजबूत सूत्र प्रदान किया।
महाभारत काल ऐसा समय था जब धर्म का उत्थान हुआ और पूरे देश में एकता का वातावरण बना। उस समय सनातन वैदिक धर्म अपने उत्कर्ष पर था, और भारत सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से एकजुट था।
मौर्य काल में अवैदिक मतों का प्रभाव बढ़ने लगा, जिसने देश की एकता को धीरे-धीरे कमजोर किया। लेकिन जब वैदिक धर्म का पुनरुत्थान हुआ, भारत ने फिर से अपनी शक्ति और समृद्धि हासिल की।
इतिहास बताता है कि अफगानिस्तान, जो उस समय बौद्ध बहुल था, वहाँ की आंतरिक अस्थिरता ने पहला इस्लामी आक्रमण सफल होने में मदद की। इसीलिए कहा जाता है—जहाँ वैदिक धर्म समाप्त हुआ, वहाँ हिंदू घटा, और जहाँ हिंदू घटा, वहीं भारत कटा।
बिना शक्ति और धर्म के संतुलन के, राष्ट्र की रक्षा असंभव है। जब भी सनातन वैदिक धर्म उभरा, भारत ने अपनी सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक ताकत को पुनः पाया। मौर्य और गुप्त साम्राज्य इसके जीवंत उदाहरण हैं।
संस्कृति चाहे कितनी भी विविध हो, लेकिन राष्ट्र की आत्मा और आधार सनातन वैदिक धर्म ही है। यह केवल पूजा-पाठ का नाम नहीं, बल्कि हमारे जीवन के हर पहलू को संभालने वाला दर्शन है।
पुनः अखंड भारत — हमारा अविचलित संकल्प
इतिहास की कड़वी सीखों के बीच हमारा संकल्प यही होना चाहिए कि हम पुनः अखंड आर्यावर्त के विशाल क्षेत्र की एकता को स्थापित करें।
अखंड भारत केवल भू-राजनीतिक कल्पना नहीं, बल्कि सांस्कृतिक, धार्मिक और वैचारिक आधार है, जिसने सदियों से इस उपमहाद्वीप को एक सूत्र में बांधा।
हमें पूर्वजों के त्याग और बलिदान को याद रखना होगा और उनके सपनों को अधूरा नहीं छोड़ना होगा। इस भूमि को म्लेच्छों से मुक्त करना, धर्म की पुनः स्थापना करना और समरिक, वैचारिक तथा सांस्कृतिक रूप से सशक्त बनाना हमारा परम कर्तव्य है।
इसलिए हम सब सनातनी हिंदू मिलकर संकल्प लें—हम अखंड आर्यावर्त को पुनः स्थापित करेंगे। चाहे इसके लिए कितनी भी पीढ़ियाँ संघर्ष करें, हम पीछे नहीं हटेंगे।
हमारा संघर्ष यही होगा कि हम अपनी संस्कृति, धर्म और पहचान की रक्षा करें। हम एकजुट रहेंगे, और अपनी राष्ट्रीय एकता कभी टूटने नहीं देंगे।
और दृढ़ता से कहेंगे—“हम एक दिन अखंड भारत में मिलेंगे।”
यह केवल संकल्प नहीं, बल्कि हमारी आत्मा की पुकार है। यही शक्ति हमें हर परिस्थिति में आगे बढ़ने और हर चुनौती को पार करने की ताकत देती है।
✍️Deepak Kumar Dwivedi
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