OBC आधारित पहचान राजनीति: राष्ट्र की एकता एवं अखंडता के समक्ष एक वैचारिक संकट


भारतवर्ष एक भूखंड मात्र नहीं, एक जीवंत संस्कृति है — ऐसी संस्कृति जिसमें विविधता के मध्य समरसता थी, और जहां सामाजिक विभाजन नहीं, कर्तव्यों का वितरण था। सनातन समाज की रचना ऐसी नहीं थी, जैसी आज जातीय संघर्ष की राजनीति उसे चित्रित करती है। आज जो “ओबीसी पहचान की राजनीति” उभर रही है, वह न तो भारत की पारंपरिक सामाजिक संरचना की अभिव्यक्ति है और न ही किसी आत्मगठित सामाजिक चेतना का स्वरूप — यह एक गहरे वैचारिक षड्यंत्र का परिणाम है, जो भारत को भीतर से तोड़ने के लिए रचा गया है।

हिन्दू समाज, जिसका आधार वर्ण नहीं, धर्म और कर्तव्य था, आज उसी को उसकी जातियों के आधार पर आत्मग्लानि और परस्पर विद्वेष की ओर मोड़ा जा रहा है। यह पहचान की राजनीति आधुनिक नहीं है — यह औपनिवेशिक प्रयोगशाला से निकला वह विषबीज है, जिसे आज भारतीय राजनीति में पुनः सींचा जा रहा है।

जातीय विभाजन की जड़ें: जब भारत को अंग्रेज़ों ने तोड़ना शुरू किया

भारतीय समाज सदा से विविध था, पर उसमें संघर्ष नहीं था। गाम्भीर्य से देखें तो कोई ब्राह्मण था तो वह ज्ञान और तपस्विता के लिए; कोई शूद्र था तो वह सेवा और श्रम की महत्ता के लिए; कोई वैश्य था तो वह लोकव्यवस्था के आर्थिक आधार के लिए। कोई जाति ‘कमतर’ नहीं थी — सब अपने धर्म में स्थित थीं। परंतु जब ब्रिटिश शासन ने भारत को केवल एक शास्य भूखंड नहीं, बल्कि एक प्रयोगशाला समझा, तब उन्होंने समाज की विविधता को संघर्ष का माध्यम बना दिया।

1871 से 1941 तक जातिगत जनगणनाएँ करवाई गईं। इसके पीछे कोई जनकल्याण नहीं, बल्कि समाज में “हम-वे” का भाव उत्पन्न करना था। “ब्राह्मण बनाम शूद्र”, “आर्य बनाम द्रविड़”, “सवर्ण बनाम पिछड़ा” — ये सभी वैचारिक बंटवारे अंग्रेजों की प्रयोगशाला में निर्मित हुए। और दुर्भाग्यवश स्वतंत्र भारत ने उसी औपनिवेशिक फ्रेम को "सामाजिक न्याय" कहकर स्वीकार कर लिया।

मंडल बनाम कमंडल: भारत का आत्मसंघर्ष

1990 के दशक में जब हिन्दू समाज राम मंदिर आंदोलन के साथ एकात्म चेतना की ओर अग्रसर था, ठीक उसी समय मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू किया गया। यह महज एक नीतिगत संयोग नहीं था, बल्कि सांस्कृतिक रणनीति थी — हिन्दू समाज को पुनः जातियों में बाँट देने की। उस समय "कमंडल" हिन्दू एकता का प्रतीक बना, तो "मंडल" उसका तोड़। इसके बाद भारतीय राजनीति में जातिगत पहचान को ही सामाजिक न्याय के नाम पर मुख्य विमर्श बना दिया गया।

यह केवल ओबीसी बनाम सवर्ण नहीं था, यह हिन्दू बनाम हिन्दू की रणनीति थी। और यही रणनीति आज एक बार फिर से, और कहीं अधिक आक्रामक रूप में दोहराई जा रही है — इस बार राहुल गांधी और उनके बौद्धिक मार्गदर्शकों के नेतृत्व में।

राहुल गांधी और वामपंथी बौद्धिक प्रयोगशाला

राहुल गांधी कोई स्वतःस्फूर्त नेता नहीं हैं। उनके पीछे सक्रिय है वामपंथी बौद्धिक परतंत्रता का वह समूह, जो भारत की सामाजिक व्यवस्था को अमेरिका के क्रिटिकल रेस थ्योरी के अनुसार परिभाषित करना चाहता है। इन्हीं के माध्यम से भारत में “कास्ट रेस थ्योरी” फैलाई जा रही है, जिसमें हर सवर्ण उत्पीड़क और हर ओबीसी, दलित पीड़ित घोषित किया जाता है।

राहुल गांधी की कथित 'ओबीसी चेतना' कोई आत्मबोध नहीं, अपितु वामपंथी बौद्धिक प्रशिक्षण का परिणाम है। कैम्ब्रिज और हार्वर्ड की कक्षाओं में बैठकर जिन 'थिंक टैंक' शिक्षकों से उन्होंने शिक्षा पाई, वे सभी वे ही थे जो भारत को 'ब्राह्मणवादी पितृसत्ता', 'हिंदू राष्ट्रवाद', और 'सांस्कृतिक वर्चस्व' जैसे शब्दों में परिभाषित करते हैं। वे भारत को सभ्यता नहीं, एक 'जातीय शोषण व्यवस्था' मानते हैं, और राहुल गांधी इसी वामपंथी दृष्टिकोण के सबसे बड़े राजनीतिक संवाहक बन चुके हैं।

मार्क्सवाद, मूलतः आर्थिक शोषण पर आधारित वर्ग संघर्ष की विचारधारा थी, जो पूँजीपति और श्रमिक के बीच सत्ता संघर्ष को इतिहास का प्रेरक तत्व मानता था। किन्तु पश्चिमी देशों में, विशेषकर अमेरिका और यूरोप में जब यह आंदोलन असफल हुआ, तब इसे “संस्कृति आधारित संघर्ष” में रूपांतरित किया गया — यही था कल्चरल मार्क्सवाद।

इस विचारधारा का मूल लक्ष्य है — समाज की उन सभी परंपरागत व्यवस्थाओं को तोड़ देना, जो उसे स्थायित्व देती हैं —
✓ धर्म,
✓ परिवार,
✓ लिंग-नैतिकता,
✓ भाषा,
✓ और सबसे महत्वपूर्ण: सांस्कृतिक पहचान।

भारत में यह कल्चरल मार्क्सवाद वर्ग के बजाय जाति को संघर्ष का औजार बनाकर प्रसारित हुआ। यहाँ कहा गया है ।

ब्राह्मणवादी व्यवस्था शोषक है”,
ओबीसी, दलित, आदिवासी – ये शोषित समुदाय हैं”,
“हिन्दू धर्म = अत्याचार की व्यवस्था है।”

यह भारतीय संस्कृति की आत्मा पर एक बौद्धिक युद्ध है — और इसकी प्रयोगशाला हैं JNU, TISS, FTII, और तमाम वामपंथी मीडिया संस्थान जहाँ इस मानसिकता को न केवल पोषित किया गया, बल्कि राजनीतिक अभियानों में बदल दिया गया। 

राहुल गांधी की जातिगत जनगणना होनी चाहिए या जितनी संख्या भारी , उतनी उसकी हिस्सेदारी ” — ये सभी नारे और वक्तव्य किसी आत्मगौरव से नहीं, बल्कि उस नव-वामपंथी नैरेटिव से प्रेरित हैं, जो भारत में कल्चरल मार्क्सवाद को नव-जागरण के रूप में स्थापित करना चाहता है।

उनके पीछे खड़ा है एक पूरा Intellectual Left Ecosystem — जिसमें

जाति के आधार पर समाज को बांटने वाले योगेन्द्र यादव,

Subaltern Studies और Critical Race Theory के भारतीय संस्करणों को आगे बढ़ाने वाले अकादमिक,

और अंतरराष्ट्रीय फंडिंग नेटवर्क्स (जैसे Ford Foundation, Soros-backed NGOs) शामिल हैं।

इन सबका उद्देश्य है — हिन्दू समाज को उसके धार्मिक, सांस्कृतिक और पारिवारिक ढाँचे से तोड़कर केवल एक ‘पीड़ित समुदायों के संघ’ में परिवर्तित कर देना।

कास्ट रेस थ्योरी: क्रिटिकल रेस थ्योरी का भारतीय संस्करण

पश्चिम में जिस प्रकार “सफेद लोग उत्पीड़क” और “अश्वेत लोग पीड़ित” घोषित किए गए, उसी ढाँचे को भारत में लाकर कहा गया —

ब्राह्मण उत्पीड़क हैं, ओबीसी/दलित पीड़ित हैं।”

यह वही Critical Race Theory है, जिसे भारत में Caste Race Theory बना दिया गया है।

अब शोषण का कोई व्यक्तिगत अनुभव, कोई आर्थिक सच्चाई या सामाजिक गतिशीलता नहीं देखी जाती — केवल जाति देखकर तय किया जाता है कि कौन उत्पीड़क है और कौन शोषित।
यह वह न्याय का विकृत रूप है, जिसमें सामाजिक सामंजस्य का स्थान स्थायी संघर्ष ने ले लिया है — यही कल्चरल मार्क्सवाद की असली चाल है।

हिंदू समाज कभी “जातीय विविधता में एकता” का प्रतीक था, जहां उपनाम, कुल, गोत्र, परंपराएँ अलग थीं, पर सबका सांस्कृतिक मूल एक – सनातन धर्म था। किन्तु आज “हिंदू ओबीसी” को “हिंदू ब्राह्मण” के विरुद्ध खड़ा करने की जो नीति चलाई जा रही है, वह धर्मशास्त्र नहीं, मार्क्सवादी द्वंद्व की नीति है। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा वस्तुतः “हिंदू समाज तोड़ो” योजना है, जो अमेरिका और केरल की चर्च प्रेरित ताकतों के साथ वामपंथी रणनीतिकारों के सहयोग से संचालित हो रही है।

इतिहास साक्षी है कि इस प्रकार की पहचान आधारित राजनीति ने किस प्रकार पाकिस्तान को जन्म दिया, कश्मीर से हिंदुओं को विस्थापित किया, और बंगाल-बिहार में सामाजिक संघर्षों को जन्म दिया। मंडल आयोग की सिफारिशों ने सामाजिक न्याय का नाम लेकर जातीय उन्माद को संस्थागत स्वरूप दिया, जिससे भारतीय प्रशासनिक ढाँचा भी जातीय गणित का शिकार हो गया। अब यही खेल “न्याय योजना” के नाम पर दोहराया जा रहा है, जिसमें बहुसंख्यक हिंदू समाज को जातियों में बाँटकर उन्हें मुस्लिम तुष्टिकरण की नई परत के नीचे दबाने का षड्यंत्र है।

यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि संघ, विहिप और संत समाज द्वारा दशकों से किए गए सामाजिक समरसता के प्रयासों को एक झटके में मिटा देने वाली ये “कल्चरल मार्क्सिस्ट रणनीतियाँ” अब संसद, मीडिया और न्यायपालिका तक गहरी पैठ बना चुकी हैं। जाति आधारित जनगणना की मांग हो या जातीय आरक्षण की पुनर्समीक्षा — इन सभी आंदोलनों के पीछे वही शक्तियाँ हैं, जो हिंदू समाज को “पहचान की राजनीति” में उलझाकर धर्मविहीन, इतिहासविहीन और आत्मविहीन बना देना चाहती हैं।

समस्या केवल राजनीतिक नहीं है, यह एक वैचारिक युद्ध है, जिसमें एक ओर सनातन का “वसुधैव कुटुंबकम्” है, तो दूसरी ओर मार्क्स का “संपत्ति छीनो, पहचान से तोड़ो” वाला उन्मादी एजेंडा। राहुल गांधी और उनके जैसे नेता केवल मोहरे हैं, जबकि मूल वैचारिक संचालन तंत्र ग्लोबल NGO, चर्च, वामपंथी बौद्धिक संस्थान, और विदेशी धनपोषित मीडिया समूह कर रहे हैं।

इस समय भारत को आवश्यकता है — एक ऐसी दृष्टि की, जो जातियों के पार हिंदू समाज को फिर से एकजुट करे, और ऐसी राजनीति की जो “सामाजिक न्याय” के नाम पर समाज के मूल को काटने का कार्य न करे। यदि हमने इस वैचारिक विभाजन को समय रहते नहीं पहचाना, तो आने वाली पीढ़ियाँ भारत को केवल एक “कृत्रिम जातीय लोकतंत्र” के रूप में ही देख पाएँगी, न कि एक “धार्मिक-सांस्कृतिक राष्ट्र” के रूप में।

बिहार: जहाँ जातिगत विष को दोबारा घोला गया

2023 में बिहार सरकार द्वारा करवाई गई जातिगत सर्वे स्वतंत्र भारत की उस नीति का उल्लंघन थी, जिसके अंतर्गत 1951 के बाद जातिगत आंकड़े नहीं जुटाए गए थे। यह केवल जनसंख्या आंकड़ा नहीं था — यह जातीय अस्मिता को उभारने और उसे वोटों में बदलने की योजना थी। "तुम्हारी संख्या ज़्यादा है, तुम्हारा हक भी ज़्यादा होना चाहिए" — यह वही तर्क है जो 1940 में जिन्ना ने मुसलमानों के लिए दिया था। आज यह तर्क ओबीसी राजनीति में दोहराया जा रहा है।

अब यह विमर्श इस स्तर पर आ चुका है कि — "हम हिन्दू नहीं, ओबीसी हैं। हमारा हित अलग है, हमारी नीतियाँ अलग हैं। 

2024 का चुनाव और "संख्या आधारित हिस्सेदारी" की राजनीति 

2024 का लोकसभा चुनाव परिणाम भाजपा के लिए एक कठोर आत्ममंथन की परिस्थिति बनकर सामने आया। तथाकथित "400 पार" के अति आत्मविश्वास ने न केवल विपक्ष को नया जीवन दिया, बल्कि राष्ट्रविरोधी वैचारिक शक्तियों को पुनः केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया। भाजपा जहाँ ‘सबका साथ, सबका विकास’ की बात करती रही, वहीं विपक्ष ने इसे संख्यात्मक बहुलता बनाम प्रतिनिधित्व के रूप में प्रस्तुत किया।

राहुल गांधी का नारा — “जिसकी जितनी संख्या भारी…” — इस बात का संकेत था कि अब राजनीतिक अधिकार और सत्ता का मापदंड योग्यता नहीं, बल्कि जनसंख्या आधारित जातिगत पहचान होगी। यह भारतीय लोकतंत्र को कल्चरल मार्क्सवादी विभाजन रेखाओं पर धकेलने का षड्यंत्र था।

 केंद्र सरकार और जातिगत जनगणना का निर्णय

इस वैचारिक दबाव और सामाजिक ध्रुवीकरण के बीच केंद्र सरकार ने 2024 के बाद जातिगत जनगणना कराने का निर्णय लिया, और 2027 तक इसके आंकड़े सार्वजनिक किए जाने की संभावना है। यह निर्णय अपने आप में एक ऐतिहासिक मोड़ है, क्योंकि यह उस रास्ते को वैधानिकता प्रदान करता है, जहाँ सत्ता-संरचना को जातीय आधार पर पुनर्परिभाषित करने की संभावनाएँ बलवती होती हैं।

भारतीय गणराज्य का संविधान ‘जाति’ को सामाजिक अन्याय के समाधान की दिशा में देखता है, न कि सत्ता के पुनर्वितरण के औजार के रूप में। किंतु आज यह औजार कल्चरल मार्क्सवादी एजेंडे का औचित्य बनता जा रहा है।

राहुल गांधी और उनके वामपंथी गुरुओं की भूमिका

राहुल गांधी स्वयं कभी इस वैचारिक विमर्श के जन्मदाता नहीं रहे। वे महज एक प्रवक्ता हैं उस वामपंथी बौद्धिक गिरोह के, जो JNU, टाटा इंस्टिट्यूट, हार्वर्ड, ब्राउन, और NGO-फंडेड थिंक टैंकों में भारत के सामाजिक विखंडन की योजनाएँ बनाते हैं। जातिगत जनगणना, पहचान की राजनीति, आरक्षण की पुनर्व्याख्या, मुसलमानों को ओबीसी श्रेणी में शामिल करने की मांग — ये सभी उसी दीर्घकालिक रणनीति के अंग हैं, जिनका उद्देश्य भारत की सनातन सांस्कृतिक एकता को खंडित करना है। 

हिंदू समाज का विघटन और रणनीतिक चुप्पी

सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि यह सब कुछ हिंदू समाज की निष्क्रिय मौन स्वीकृति के साथ क्यों हो रहा है? क्या हिंदू समाज अपने ही भीतर जाति, उपजाति, गोत्र, क्षेत्रीयता और भाषाई अलगाव के बोझ से इतना पस्त हो चुका है कि वह राष्ट्रविरोधी एजेंडों के विरुद्ध सामूहिक प्रतिक्रिया तक नहीं दे पा रहा?

हिंदू समाज को यह समझना होगा कि यदि पहचान की राजनीति ही सत्ता का आधार बनेगी, तो वह समाज जिसकी पहचान धर्म और संस्कृति की एकात्मता में है, वह सबसे अधिक विघटित होगा।

हिन्दू समाज: जो अपने स्वरूप को भूल गया

हिन्दू समाज की पीड़ा यह नहीं कि जातियाँ हैं — पीड़ा यह है कि वह अपने कर्तव्य-आधारित वर्णाश्रम धर्म को छोड़कर अधिकार-आधारित जाति पहचान की ओर चला गया। ब्राह्मण अब त्याग और अध्ययन का प्रतीक नहीं, विशेषाधिकार का प्रतीक बना दिया गया। शूद्र अब सेवा का गौरव नहीं, अपमान का बिंब बन गया। वैश्य, जो यज्ञ का अधिष्ठान था, अब केवल पूँजीपति कहलाता है। क्षत्रिय, जो समाज के रक्षण हेतु था, अब सत्ता का लोभी कहा जाता है।

यह विकृति हमारी नहीं है — यह हमारी अज्ञानता, आत्मविस्मृति और सांस्कृतिक पराजय का परिणाम है।

2027 में आने वाली जातिगत जनगणना के आँकड़े केवल आंकड़े नहीं होंगे, वे एक नवसंविधान की प्रस्तावना हो सकते हैं, यदि हिंदू समाज ने समय रहते इस वैचारिक युद्ध को नहीं पहचाना। यह केवल राजनीतिक संघर्ष नहीं, बल्कि सांस्कृतिक अस्तित्व का संघर्ष है।

हमें यह समझना होगा कि —
“विचारधारा का प्रतिकार केवल विचारधारा से होता है, और सनातन धर्म की रचना ‘संख्या’ पर नहीं, ‘संस्कार’ पर आधारित होती है।” 

समाधान राजनीति से नहीं, आत्मदर्शन से

यह संकट किसी सरकार से नहीं सुलझेगा। यह संविधान संशोधन या आरक्षण नीति से नहीं मिटेगा। इसका समाधान केवल तब होगा जब हिन्दू समाज स्वयं अपने मूल स्वभाव को पहचाने — जहाँ जाति पहचान नहीं, कर्तव्य है; जहाँ वर्ण वैमनस्य नहीं, सामाजिक सहचर्य है; जहाँ अधिकार नहीं, सेवा और समर्पण की भावना है।

यदि हम आज भी जाति को राजनीति का औजार बनने देंगे, तो आने वाले समय में “हिन्दू” केवल एक नाम रह जाएगा — समाज के रूप में उसका कोई अस्तित्व नहीं बचेगा।

अब मौन रहने का समय नहीं है — अब आत्मचेतना की आग जलानी होगी।

हमें फिर से यह कहना होगा — हम ओबीसी नहीं, हम हिन्दू हैं।
हम शूद्र, ब्राह्मण, वैश्य या क्षत्रिय नहीं, हम सनातनी परिवार के अंग हैं।
हम कोई संख्या नहीं, हम सनातन संस्कृति के उत्तराधिकारी हैं।

✍️ दीपक कुमार द्विवेदी

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