नर्मदा के किनारे चुपचाप बैठो, तो उसके जल की हल्की-हल्की ध्वनि कानों से नहीं, मन से सुनाई देती है। वह ध्वनि कोई कहानी कहती है — किसी प्राचीन व्रत की, किसी मौन प्रार्थना की, किसी गुमनाम स्त्री की जो हर दिन एक छोटे-से शिवलिंग को जल चढ़ाकर लौट जाती है, बिना कुछ कहे। यही नर्मदा है — और उसी की गोद में जन्मा है नर्मदेश्वर शिवलिंग।
यह कोई साधारण पत्थर नहीं। यह वो शिला है जो किसी मल्लाह के जाल में नहीं फँसती, किसी व्यापारी के हाथ नहीं लगती, किसी मन्दिर की प्रतिष्ठा के लिए नहीं बनती। यह तो शिव की वह उपस्थिति है, जो खुद रास्ता तय करती है — जल की धाराओं से, समय की चोटों से, और भक्त की पुकार से।
मालवा के एक गाँव में एक वृद्ध स्त्री रहती थी। कोई संतान नहीं, पति वर्षों पूर्व चल बसे। हर भोर वह अपनी लकड़ी की लाठी ले, खेत के किनारे बहती छोटी-सी नर्मदा की धारा तक जाती और एक गोल चिकने पत्थर पर जल चढ़ा देती। कोई मंत्र नहीं, कोई विधि नहीं। बस कहती —
“भोले, आज रात बारिश हो जाए।”
गाँव के लोग हँसते थे, कहते — “अम्मा, पत्थर से कौन बात करता है!”
पर अगली सुबह खेत गीले होते थे, और अम्मा फिर उसी पत्थर पर बेलपत्र चढ़ाकर कहती —
“देख, तू सुनता है न।”
वह पत्थर कोई साधारण शिला नहीं था। वह नर्मदेश्वर शिवलिंग था — नर्मदा की धाराओं ने स्वयं गढ़ा, माँ की तरह स्नेह से घिस-घिसकर आकार दिया। उसमें कोई नक्काशी नहीं, कोई आभूषण नहीं, पर उसकी मौनता में शिव स्वयं विराजते थे।
नर्मदेश्वर शिवलिंग की विशेषता यही है — वह बोलता नहीं, पर सुनता है।
वह माँगता नहीं, पर देता है।
वह मंत्र नहीं चाहता, बस एक मौन अर्घ्य —
एक टूटी हुई माटी की लोटकी,
और हृदय से निकली एक सरल पुकार।
शिव की यही सुलभता उन्हें ग्रामदेवता बनाती है। वे काशी के त्रिशूलधारी महादेव ही नहीं, वे उन गाँव के भोलेनाथ भी हैं, जो खेत की मेंड़ पर मिट्टी से ढके होते हैं, जिन पर हल चलाने से पहले किसान थोड़ी माटी चढ़ा देता है।
कई साधक नर्मदा की परिक्रमा करते समय उस क्षण की प्रतीक्षा करते हैं —
जब किसी शांत घाट पर, स्नान करते समय,
उनके चरणों से कोई शिला टकरा जाए।
गोल, चिकना, स्पर्श करते ही कुछ कहता हुआ।
बुज़ुर्ग कहते हैं — “जिसे शिव अपनाते हैं, उसे यह शिवलिंग स्वयं मिलता है।”
और तब वह कोई पूजनीय मूर्ति नहीं — सहचर बन जाता है।
ग्राम की स्त्रियाँ नर्मदेश्वर शिवलिंग को देवता नहीं, घर का सदस्य मानती हैं।
बहू ससुराल जाती है, तो माँ उसके आँचल में एक छोटा-सा शिवलिंग बाँध देती है।
बच्चे का जन्म होता है, तो सबसे पहले उसका मस्तक शिवलिंग से छुआया जाता है।
रोग, भय, संकट, निर्धनता — सबमें शिवलिंग को गोद में लेकर आँसू बहाए जाते हैं।
शिव उत्तर नहीं देते, पर रात को नींद आ जाती है।
शिव कुछ नहीं कहते, पर मन हल्का हो जाता है।
शास्त्रों की नहीं, जीवन की सिद्धि
शास्त्र कहते हैं —
नर्मदा जलात् प्राप्तं लिङ्गं स्वयम्भू भवेत्। न प्रतिष्ठा, न संस्कारः। शिवोऽयं परमेश्वरः।”
इसका अर्थ यही नहीं कि यह शिवलिंग केवल सिद्ध है —
इसका अर्थ यह भी है कि यह शिव स्वयं ग्रामीण जीवन की चुप साधना में बसते हैं।
नर्मदेश्वर शिवलिंग न केवल धार्मिक आस्था है, यह एक संवेदनात्मक रिश्ता है।
जैसे कोई बूढ़ा पिता अपने बेटे को बिना बोले समझ लेता है,
वैसे ही यह शिवलिंग बिना बोले सब जान लेता है।
अंत में...
आज जब भक्ति भी प्रदर्शन बन चुकी है,
मंदिरों में घंटियाँ तो बजती हैं, पर दिल से कोई बात नहीं करता —
तब भी गाँव की वह स्त्री, खेत का वह किसान,
और वह वृद्ध जो अब आँखों से नहीं देख पाता —
वे सब अब भी उसी नर्मदेश्वर को जल चढ़ाते हैं।
क्योंकि उन्हें पता है —
शिव कहीं बाहर नहीं,
वह तो उस गोल पत्थर में हैं —
जो कभी बोलता नहीं, पर कभी छोड़ता नहीं।
✍️दीपक कुमार द्विवेदी
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें