*“”*
भारत की धरती पर कुछ शक्तियां लगातार यह साजिश रचती रही हैं कि यहां के लोग आपस में घृणा करें, संदेह करें और जाति-धर्म के नाम पर एक-दूसरे को शत्रु मानें। हजारों वर्षों से यह भूमि संतों, आचार्यों, ऋषियों, महापुरुषों और बलिदानी वीरों की रही है जिन्होंने समाज को एक परिवार की तरह जोड़े रखा। मगर जब विदेशी आक्रांता भारत में आए, उन्होंने सबसे पहले इसी एकता पर प्रहार किया। 1871 में अंग्रेजी जनगणना के जरिए जातियों को परिभाषाओं और उपवर्गों में बांटकर यह भ्रम पैदा किया गया कि कोई जाति दूसरी से श्रेष्ठ या अधीन है। इससे पहले किसी प्रमाणिक शास्त्र में ऐसा कठोर वर्गीकरण नहीं था। यह विभाजन अंग्रेजी नीतियों की देन था, जिसे दुर्भाग्यवश स्वतंत्र भारत की राजनीति ने भी यथावत बनाए रखा।
वही तंत्र आज भी जिंदा है, बस चेहरों ने रूप बदल लिया है। कभी यह विभाजन वामपंथी इतिहासकारों की पुस्तकों में पनपता है, कभी जातीय राजनीति के मंचों पर। हाल ही में इटावा की घटना इसका ताजा उदाहरण बनी जब एक कथावाचक ने मंच पर कथा के बीच फिल्मी गीत गाए और इसके तुरंत बाद समाजवादी पार्टी के एक बड़े नेता अखिलेश यादव ने उनका सम्मान कर डाला। देखते ही देखते इस घटना को ऐसा रूप देने का प्रयास हुआ जैसे यह किसी जाति के प्रतिशोध का प्रतीक हो, जिससे यादव और ब्राह्मण समाज के बीच वैमनस्य और अविश्वास का बीज बोया जाए। यह कोई साधारण घटना नहीं, बल्कि एक सुनियोजित प्रयोग था कि कैसे धार्मिक मंचों की पवित्रता को तोड़कर जातीय भावनाएं उकसाई जाएं और समाज के मन में यह जहर भर दिया जाए कि कोई जाति हमेशा से शोषक रही और कोई जाति हमेशा से पीड़ित रही।
इतिहास में अनेक बार यही प्रयोग अलग-अलग रूपों में किए गए। अंग्रेजों के समय “डिवाइड एंड रूल” की नीति को सरकारी योजनाओं में दर्ज किया गया। स्वतंत्र भारत में भी कुछ राजनीतिक दलों ने जातियों को अपने वोट बैंक का हथियार बनाया। वही मानसिकता आज फिर सक्रिय है, जो चाहती है कि हम अपने पूर्वजों की एकता और परंपराओं को भुलाकर केवल जातिगत अस्मिता में सिमट जाएं। यह स्मरण रहे कि जब-जब भारत में आक्रमण हुए, ब्राह्मण, ठाकुर, यादव, कुशवाहा, वैश्य, जाट, गुर्जर सभी ने कंधे से कंधा मिलाकर लड़ाइयां लड़ीं। जब मराठा साम्राज्य खड़ा हुआ, उसमें हर जाति के सैनिक थे। जब 1857 का संग्राम लड़ा गया, जाति की दीवारें गिर गईं। लेकिन सत्ता के लालच में कुछ लोग बार-बार यही झूठ फैलाते हैं कि जातियां एक-दूसरे की शत्रु रही हैं।
आज भी यह कड़वा सच है कि जिन लोगों ने बार-बार समाज में विभाजन के बीज बोए, वे वही हैं जो भारत की आत्मा को सबसे ज्यादा चोट पहुंचाते हैं। कभी जाति के नाम पर आरक्षण की राजनीति की जाती है, कभी जाति के नाम पर महापुरुषों के अपमान का खेल खेला जाता है, और जब कोई विरोध करे तो उसे भी जातिवादी कहकर चुप कराने का षड्यंत्र रचा जाता है। यही वजह है कि अनेक महापुरुषों ने इस जहर को काटने का प्रयास किया। स्वामी विवेकानंद ने स्पष्ट कहा कि जब तक जाति का घमंड नहीं टूटेगा, तब तक भारत उठ नहीं पाएगा। महात्मा गांधी ने अस्पृश्यता के खिलाफ सत्याग्रह किया। डॉ. हेडगेवार और गुरुजी गोलवलकर ने संघ में जाति के किसी भेद को स्थान नहीं दिया और एक ही भावना दी – “हम सब हिंदू हैं।”
यदि आज हम इस प्रवृत्ति को पहचानकर उसका विरोध नहीं करेंगे, तो हमारी अगली पीढ़ियां जातिगत नफरत की उस आग में झुलसेंगी जिसे सत्ता की भूख में कुछ लोग रोज हवा दे रहे हैं। कथा कहने के मंच को फिल्मी गानों का अखाड़ा बनाना और फिर उसे जातीय गर्व या प्रतिशोध की लड़ाई में बदल देना सनातन संस्कृति का भी अपमान है और समाज की बुनियाद पर भी चोट है। हमें याद रखना होगा कि भारत का भविष्य केवल और केवल हमारी एकता से सुरक्षित रहेगा।
जब हम जातियों में बंटते हैं, तब हमारी ऊर्जा बिखरती है। जब हम एकजुट होते हैं, तब यही शक्ति राष्ट्र की रक्षा करती है। कोई जाति शत्रु नहीं है, कोई वर्ण अपवित्र नहीं है। जो भी यह कहे कि किसी जाति ने सदा शोषण किया, वह या तो इतिहास से अज्ञानी है या जानबूझकर समाज को तोड़ना चाहता है। यही समय है जब हम जातिगत पूर्वाग्रह, कटुता और भ्रम को छोड़कर अपनी सनातन एकता को गले लगाएं और यह संकल्प लें कि किसी भी राजनीतिक स्वार्थ, किसी भी मंसूबे के लिए हम भाई को भाई से अलग नहीं होने देंगे। यही भारत माता की सच्ची सेवा है।
“हम जातियों से ऊपर उठकर सनातन धर्म के सैनिक हैं, हमारी एकता ही हमारी सबसे बड़ी शक्ति है और यही हमारी सबसे बड़ी पहचान”
लेखक
महेंद्र सिंह भदौरिया
प्रांत टोली सदस्य विश्व हिंदू परिषद उत्तर गुजरात ,सोशल एक्टिविस्ट
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें