आज जब शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी आवश्यकताएँ आम जनमानस की पहुँच से बाहर होती जा रही हैं, तब यह प्रश्न सहज ही उठता है कि किस दिशा में हम जा रहे हैं? क्या कोई ऐसी अदृश्य शक्ति है जो इन सभी व्यवस्थाओं को हमारे विरुद्ध, हमारे परिवार के विरुद्ध, और हमारे जीवन के सहज क्रम के विरुद्ध संचालित कर रही है?
पहले की पीढ़ियों को याद कीजिए—एक परिवार में दादा, दादी, चाचा, ताऊ, बहनें, बेटियाँ, और समधी-समधिन तक एक दूसरे से जुड़े होते थे। बीमारियाँ घर के बुज़ुर्गों की जड़ी-बूटियों से ठीक हो जाती थीं, और शिक्षा केवल रोजगार नहीं, जीवन का प्रशिक्षण हुआ करती थी। लेकिन आज? आज एक साधारण बीमारी का इलाज दस हज़ार रुपए से शुरू होता है और उच्च शिक्षा लाखों में बिकती है। ये दोनों बातें आज की उस दुनिया की असली पहचान हैं जिसे हम 'आधुनिक' कहकर खुद को बहलाते हैं।
यह केवल महँगाई नहीं, यह सुनियोजित व्यवस्था है। यह वही 'ग्लोबल मार्केट फोर्सेज़' हैं जो अब न केवल हमारे बाज़ार को बल्कि हमारी जीवन शैली को नियंत्रित कर रही हैं। वह तय कर रही हैं कि हमें कैसे कपड़े पहनने हैं, किस भाषा में बोलना है, किस विचारधारा को 'प्रगतिशील' कहना है, और कौन सा संस्कार 'पिछड़ापन' कहलाएगा। वह हमारे बच्चों को यह सिखा रही हैं कि धर्म एक भ्रम है, परिवार एक बोझ है, और स्वतंत्रता का अर्थ है—बंधन से मुक्ति, चाहे वह बंधन प्रेम का ही क्यों न हो।
पश्चिमी प्रभाव के कारण पारिवारिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है। इसके पीछे वैश्विक बाजार शक्तियाँ (Global Market Forces) सक्रिय हैं, जो सम्पूर्ण विश्व के आर्थिक तथा शासकीय तंत्र को अपने अनुकूल संचालित करना चाहती हैं। जो उनके अनुकूल नहीं चलते, उन्हें परिवर्तित करने का भरसक प्रयास करती हैं—चाहे वह इराक में सद्दाम हुसैन रहे हों अथवा आज ईरान हो, जहाँ अमेरिका और वैश्विक शक्तियाँ सत्ता-परिवर्तन हेतु कटिबद्ध हैं। दोनों स्थानों पर इस्लामिक कट्टरपंथी शक्तियाँ शासन में थीं, जो मानवता के लिए संकट थीं; तथापि झूठी अफवाहें फैलाकर जैसे—"परमाणु बम है"—ईरान पर अपने पिट्ठुओं के माध्यम से आक्रमण करवाना कितना घातक हो सकता है, इसका अनुमान सहज नहीं। अमेरिका तथा जिसे 'डीप स्टेट' (Deep State) कहा जाता है—वह वैश्विक बाजार शक्तियाँ ही हैं। इसमें विश्व की 20 प्रमुख कम्पनियाँ सम्मिलित हैं, जिनमें स्वास्थ्य बीमा, औषधि निर्माण, शस्त्र निर्माण तथा तकनीकी माफिया सम्मिलित हैं। ये सम्पूर्ण विश्व की अर्थव्यवस्था तथा शासन व्यवस्था को अपने अनुकूल नियंत्रित करना चाहती हैं।
शिक्षा और स्वास्थ्य की महँगाई का यही कारण है—क्योंकि इन्हें विश्व की समस्त पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व्यवस्थाओं को नष्ट करना है। भारत इनके लिए पिछले सहस्त्र वर्षों से लक्ष्य है। 'डीप स्टेट' अर्थात वैश्विक बाजार शक्तियाँ चर्च के लिए ही कार्य करती हैं। इसकी प्रारम्भिक इकाई रोमन चर्च था; जितनी भी कंपनियाँ थीं, सब रोमन चर्च के लिए ही कार्य करती थीं। जैसे ही अमेरिका शक्तिशाली हुआ, 'डीप स्टेट' का केन्द्र अमेरिका बन गया।
चर्च का आधुनिक और वैचारिक स्वरूप ही साम्यवादी (वामपंथी) है। समय के साथ जब चर्च का क्रूर चेहरा जगत के सम्मुख आने लगा, तब चर्च ने वैश्विक बाजार शक्तियों के माध्यम से वामपंथियों को आर्थिक सहायता देकर उन्हें आगे कर दिया। वामपंथी पूँजीवाद और कंपनियों का विरोध करेंगे, किन्तु गुप्त रूप से उन्हीं के लिए कार्य करेंगे।
समाजिक, राजनैतिक परिस्थितियों के कारण रूस में क्रांति हुई, तत्पश्चात वामपंथियों का क्रूर स्वरूप भी उजागर हुआ। 1910 से 1960 के मध्य साम्यवाद का प्रभाव चरम पर था, किन्तु कालान्तर में उसका प्रभाव ढलान की ओर अग्रसर होने लगा। रूस जैसी क्रांति अन्यत्र नहीं हो सकीं। इसके पश्चात फ्रैंकफर्ट विद्यालय (Frankfurt School) में नवमार्क्सवाद (Neo-Marxism) का उदय हुआ जिसे 'सांस्कृतिक मार्क्सवाद' (Cultural Marxism) कहा जाता है।
इन्होंने वैश्विक बाजार शक्तियों एवं चर्च के एजेंडे को नये रूप में गति दी। परिवार, समाज, संस्कृति, राष्ट्र जैसी महत्वपूर्ण संस्थाओं को ध्वस्त करके नये विचार और संस्थाएँ प्रचलन में लायी गईं। उदाहरणस्वरूप—LGBTQ के नाम पर आज स्वास्थ्य माफिया के एजेंडे के अनुरूप लिंग के 126 रूप परिभाषित हो चुके हैं। जबकि हम लिंग को केवल तीन रूपों में जानते हैं—स्त्री, पुरुष और तृतीय लिंग।
किन्तु आज के समय में, यदि किसी को प्रातः स्त्री भाव लगे तो सर्जरी और थेरेपी से उसे स्त्री बना दिया जाता है, और सायं को पुनः यदि वह पुरुष बनना चाहे तो पुनः पुरुष बना दिया जाता है। इस प्रकार की योजनाएँ परिवार संस्था को ध्वस्त करने के लिए ही बनाई गई हैं—जिससे मनुष्य को एक रोबोट और उपभोक्ता बना दिया जाये, जो भावनाशून्य हो।
परिवार, समाज, राष्ट्र, धर्म—ये सब 'बंधन' हैं। यदि ये रहेंगे, तो मनुष्य पूर्णतः उपभोक्तावादी और भौतिकवादी नहीं बन सकेगा। इसी प्रयोग के फलस्वरूप आज जापान, चीन, अमेरिका, यूरोप आदि में पारिवारिक सामाजिक ढाँचे तथा यहाँ तक कि अब्राह्मिक मतों के स्तम्भ भी ढहते जा रहे हैं। नास्तिकता बढ़ती जा रही है, और उसका मुख्य कारण यही है कि अब्राह्मिक विचारधाराओं एवं मजहबों के कुकृत्यों से वहाँ के जनसमूह त्रस्त हो चुके हैं। उन्हें आत्मिक शान्ति चाहिए, किन्तु वह उन्हें प्राप्त नहीं हो रही है।
यूरोप और अमेरिका की स्थिति भिन्न है। जो गर्त उन्होंने पूर्वी देशों तथा भारत के लिए खोदा था, आज उसे वे स्वयं ही भोग रहे हैं—यह कर्मसिद्धान्त का सीधा परिणाम है। अपने एजेंडों को थोपने के लिए चीन, जापान और भारत की पारिवारिक व्यवस्था को ध्वस्त करने का प्रयास किया गया, जिसमें चीन और जापान में वे सफल हो चुके हैं। भारत में अब नवमार्क्सवाद का जो स्वरूप उभर रहा है, उसके लिए नेहरू की नीतियाँ उत्तरदायी हैं।
कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रभाव में आकर पंचवर्षीय योजना के नाम पर सम्पूर्ण आर्थिक तंत्र वामपंथियों को 1955 में सौंप दिया गया। सत्ता में बने रहने के लिए इंदिरा गांधी ने सम्पूर्ण शैक्षिक प्रणाली, मीडिया और फिल्म उद्योग को वामपंथियों के अधीन कर दिया।
परिवार, समाज, धर्म, राष्ट्र जैसी संस्थाओं को ध्वस्त करने के लिए—मार्क्सवादी एजेंडे के अनुरूप विकृत इतिहास लिखा गया। सांस्कृतिक मार्क्सवाद की 'क्रिटिकल रेस थ्योरी' के अनुसार जातिगत तथा सामाजिक विभाजन रचे गए।
फिल्मों के माध्यम से समाज के नैतिक अधोपतन का प्रयास किया गया। 1980 के बाद निर्मित अधिकांश फिल्में वामपंथी एजेंडे पर आधारित थीं, जिनका उद्देश्य था—परिवार, धर्म, संस्कृति, राष्ट्र की अवधारणाओं को नकारना। इन्हें ब्राह्मणवादी, पितृसत्तात्मक, बंधनकारी सिद्ध किया गया।
नारीवाद को उग्र स्वरूप में प्रस्तुत किया गया। महिलाओं के बीच शिक्षा के माध्यम से वामपंथी विचारों को परोसा गया। 2000 के दशक में अश्लीलता (Pornography) को भी सामाजिक माध्यमों से परोसा जाने लगा जिससे समाज का नैतिक ह्रास हो।
मीडिया, फिल्म और शिक्षा के माध्यम से यह प्रचारित किया गया कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने वाला व्यक्ति नास्तिक होता है, धर्म एक अफ़ीम है, धर्म-कर्म, उपासना—सर्वथा अंधविश्वास और पाखण्ड है। शिवलिंग पर दूध चढ़ाना ग़लत है, इसे गरीबों में बाँट देना चाहिए।
ब्राह्मण समाज का दानवीकरण कर उन्हें शोषक सिद्ध किया गया। ब्राह्मणों द्वारा सम्पन्न कर्मकाण्डों को अंधविश्वास और पाखण्ड कहा गया।
इसके कारण 1990 के बाद जन्मी पीढ़ी, विशेषकर जो शिक्षित हुई, अपनी संस्कृति व सभ्यता पर गर्व करने के स्थान पर हीन भावना से ग्रस्त हो गई। मेरी भी कक्षा 11वीं-12वीं में यही स्थिति रही, किन्तु महर्षि दयानंद सरस्वती की ‘सत्यार्थ प्रकाश’ तथा भगवान शिव के प्रति अटूट श्रद्धा के कारण मैं धर्मपथ से विचलित नहीं हुआ।
फिर संघ स्वयंसेवकों के सम्पर्क में आया, उनके मार्गदर्शन में अध्ययनशील हुआ, स्वाध्याय आरम्भ किया और इस फर्जी नैरेटिव से मुक्त हुआ।
किन्तु विद्यालयीन शिक्षा के समय यह वामपंथी एजेंडा अत्यन्त आकर्षक प्रतीत होता है, और अधिकांश युवाओं के मस्तिष्क पर वामपंथी विष प्रभावी हो जाता है।
पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा धार्मिक मूल्यों के विरुद्ध विष घोला जाता है, और इसमें वे बहुत हद तक सफल हो जाते हैं। कारण—कॉन्वेंट विद्यालयों का व्यापक विस्तार, एवं अभिभावकों की धर्म-संस्कृति विषयक अज्ञानता। वे अपने बच्चों को संस्कार नहीं दे पाते।
विशेषतः महानगरों तथा वामपंथी व चर्च के प्रभाव वाले क्षेत्र—जैसे केरल, बंगाल, तमिलनाडु में यह स्थिति अत्यधिक विकट है। अब उत्तर भारत में भी यही वायरस फैल चुका है।
तलाक के मामले बढ़ रहे हैं, 'केजुअल सेक्स' सामान्य बात हो चुकी है, विवाह पूर्व यौन-संबंध प्रचलन में आ चुके हैं। लिव-इन रिलेशनशिप को कई राज्यों ने संवैधानिक मान्यता प्रदान कर दी है।
विवाहोत्तर अवैध संबंधों को भी न्यायिक मान्यता देने की दिशा में सर्वोच्च न्यायालय कार्यरत है।
498A को समाप्त करके अब वैवाहिक बलात्कार पर सुनवाई आरम्भ हो चुकी है। यह सब कार्य उन्हीं वैश्विक बाजार शक्तियों द्वारा पोषित शक्तियों के माध्यम से हो रहा है।
सरकारें नहीं, अपितु सर्वोच्च न्यायालयों के माध्यम से इसे लागू किया जा रहा है।
वर्तमान में वामपंथी शक्तियाँ शासन में नहीं हैं, किन्तु उनके विचारधारात्मक अनुयायी प्रशासनिक तंत्र में विद्यमान हैं।
सर्वोच्च न्यायालय, मीडिया, शैक्षिक संस्थानों के माध्यम से यह वामपंथी एजेंडा—जो वैश्विक बाजार शक्तियों का ही छद्म स्वरूप है—प्रचारित किया जाता है।
मानविकी विभागों में सांस्कृतिक मार्क्सवाद का जितना विष सोशल स्टडी के नाम पर परोसा जाता है, उतना अन्यत्र नहीं।
JNU, TISS, जामिया मिलिया, जादवपुर विश्वविद्यालय तथा प्रत्येक राज्य विश्वविद्यालय में वामपंथ द्वारा पोषित यही विष मिलेगा।
इसी विषैले वैचारिक वातावरण के कारण परिवार व्यवस्था ध्वस्त हो रही है। परिवार अब केवल एक औपचारिक संस्था बनता जा रहा है, जिसमें भावनाओं, उत्तरदायित्वों, नैतिकता तथा सामाजिक प्रतिबद्धताओं का अभाव होता जा रहा है।
इस प्रकार की सोच की नींव हमारे मस्तिष्क में बचपन से ही डाली जाती है—माता-पिता के विरुद्ध विद्रोह, विवाह संस्था से विमुखता, ब्राह्मणों और धर्म के प्रति घृणा, देश-राष्ट्र की अवधारणा का उपहास, ये सब सांस्कृतिक मार्क्सवाद के मूल उपकरण हैं।
इस विघटनकारी वैचारिक आक्रमण का मुख्य उद्देश्य है—भारत की सनातन समाज संरचना को ध्वस्त करना, जिससे व्यक्ति केवल एक उपभोक्ता बनकर रहे। उसमें आत्मचिंतन, आस्था, तात्त्विक प्रश्नों का बोध न हो; वह अपने जीवन का ध्येय केवल सुविधाओं की प्राप्ति माने, सत्य की नहीं।
अब प्रश्न उठता है—समाधान क्या है?
सनातनी आर्थिक मॉडल ने राज्य और समाज की भूमिकाओं को सदा स्पष्ट रखा। राज्य का कार्य व्यापार करना नहीं था। न ही सरकार को शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सेवाओं पर एकाधिकार प्राप्त था। ये कार्य समाज करता था, और वह भी पूर्ण दक्षता और नैतिकता के साथ। प्राचीन भारत में गुरुकुलों की व्यवस्था राजा और समाज के सामूहिक सहयोग से चलती थी। वहाँ शिक्षा का उद्देश्य केवल जीविका नहीं, बल्कि जीवन की पूर्णता प्राप्त करना था। विलियम एडम्स और धर्मपाल जैसे विद्वानों की रिपोर्टें इस बात का स्पष्ट प्रमाण हैं कि अठारहवीं सदी के पूर्वार्ध तक भारत में ग्राम स्तर पर हज़ारों पाठशालाएँ कार्यरत थीं, जहाँ सभी जातियों और वर्गों के बालक विद्या प्राप्त करते थे—बिना किसी शुल्क के, बिना किसी मार्केट बल के दबाव के।
स्वास्थ्य की बात करें तो वह आयुर्वेद और घरेलू उपचार की स्वदेशी परंपराओं पर आधारित था। गाँव-गाँव में वैद्य और नाड़ी विशेषज्ञ उपलब्ध होते थे। यह व्यवस्था सामुदायिक थी, पूँजी पर नहीं टिकी थी। किंतु आज हम शिक्षा और स्वास्थ्य को व्यापार का विषय बना चुके हैं। चर्च और कॉर्पोरेट घराने मिलकर भारत की मानसिकता और सामाजिक ढाँचे को नियंत्रित कर रहे हैं।
सबसे गहरी और व्यापक समस्या आज की आर्थिक संरचना है। आज की व्यवस्था ऋण और उपभोग पर आधारित है। फिएट करेंसी यानी बिना किसी वास्तविक संपत्ति के समर्थन के, केवल 'सरकारी आदेश' पर चलने वाली मुद्रा ने पूरे विश्व की आर्थिक व्यवस्था को अस्थिर कर दिया है। यह व्यवस्था पहले अमेरिका ने अपनाई और फिर पूरी दुनिया को इस जाल में बाँध लिया। 1971 में अमेरिका ने गोल्ड स्टैंडर्ड को त्याग दिया—यानी मुद्रा अब सोने के भंडार से जुड़ी नहीं रही। उसके बाद से हर देश की सरकारें जितनी चाहे उतनी मुद्रा छापने लगीं। परिणामस्वरूप महँगाई बढ़ी, बाजार अस्थिर हुए, और समाज पर ऋण का बोझ चढ़ता गया।
सनातनी आर्थिक मॉडल इस भोगवादी, ऋण-आधारित व्यवस्था के सर्वथा विरुद्ध है। हमारी व्यवस्था त्याग पर आधारित रही है, उपभोग पर नहीं। हमारी दृष्टि में अर्थ केवल संग्रह करने की वस्तु नहीं है, बल्कि जीवन को संतुलन देने का माध्यम है। यही कारण है कि प्राचीन भारत में मुद्रा का निर्माण सीमित था, उसका मूल्य सोने से जुड़ा होता था, और उसका संचालन सामाजिक उत्तरदायित्व के साथ होता था।
अगर हम फिर से 'गोल्ड स्टैंडर्ड' को अपनाते हैं—जिसमें मुद्रा केवल उतनी ही छप सकती है जितना भंडार में स्वर्ण है—तो न केवल मुद्रा का मूल्य स्थिर होगा, बल्कि महँगाई स्वतः नियंत्रित हो जाएगी। बैंक अंधाधुंध ऋण बाँटना बंद करेंगे, उपभोग की अंधी दौड़ थमेगी, और समाज फिर से बचत आधारित संरचना की ओर अग्रसर होगा। यह वही व्यवस्था है जो भारत को 'सोने की चिड़िया' बनाती थी।
राजनीतिक और प्रशासनिक दृष्टि से भी हमें केंद्रीकरण और विकेंद्रीकरण के संतुलन को पुनः समझना होगा। शासन व्यवस्था का केंद्रीकरण हो, लेकिन समाज की सहमति से। राज्य को नीति निर्धारण, सुरक्षा और विदेश नीति जैसे कार्य करने चाहिए, लेकिन आर्थिक गतिविधियाँ समाज के विवेक और स्वतंत्रता पर छोड़ दी जानी चाहिए। इससे न केवल बेरोज़गारी का समाधान होगा, बल्कि एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का वातावरण बनेगा जहाँ कोई भी व्यक्ति—बिना जाति, क्षेत्र, पूंजी या संबंध के आधार पर—अपनी मेहनत से समृद्धि अर्जित कर सकेगा।
आज के समय में जब रेलवे, दूरसंचार, ऊर्जा, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में या तो सरकारी मोनोपॉली है या कुछ गिने-चुने पूँजीपतियों का कब्ज़ा, वहाँ हम “समान अवसर” जैसे सिद्धांत को खो चुके हैं। सनातन व्यवस्था कहती है कि न तो सरकार को मोनोपॉली होनी चाहिए और न ही किसी कॉर्पोरेट को। सभी के लिए अवसर समान हों, यह राज्य का धर्म है।
जब तक हम यह स्वीकार नहीं करते कि हमारी समस्याओं का समाधान पश्चिम के मॉडल में नहीं है, तब तक हम समाधान की ओर बढ़ ही नहीं सकते। समाजवाद ने समाज को सरकार के अधीन कर दिया और पूँजीवाद ने सरकार को पूँजीपतियों का नौकर बना दिया। दोनों ने व्यक्ति को उसकी आत्मनिर्भरता से वंचित किया, और परिवार, धर्म, संस्कृति जैसे संस्थानों को संकट में डाल दिया। समाधान है केवल सनातन—जहाँ व्यक्ति स्वतंत्र है लेकिन समाजबद्ध है, जहाँ राज्य धर्मनिष्ठ है लेकिन आधिपत्यवादी नहीं, और जहाँ अर्थव्यवस्था विकेन्द्रित है लेकिन अनुशासित।
भारत को आज जिस मार्ग की आवश्यकता है, वह रामराज्य की अवधारणा से अनुप्राणित मार्ग है—एक ऐसा तंत्र, जहाँ राज्य धर्म के अधीन हो, राजा मर्यादा का पालन करे, नीति और न्याय एकात्म हों, और प्रजा सुखी, समरस तथा निर्भय जीवन जिए। रामराज्य केवल एक धार्मिक प्रतीक नहीं, बल्कि एक राजनैतिक-दार्शनिक आदर्श है। वहाँ राज्यव्यवस्था का उद्देश्य केवल सुरक्षा और शासन नहीं, अपितु धर्म की स्थापना और लोकमंगल है।
सम्राट विक्रमादित्य, जिनके काल को भारत का स्वर्णयुग कहा जाता है, उनके राज्य की विशेषता यह थी कि नीति का केंद्र न्याय और संस्कृति थी। उन्होंने शासन को केन्द्रीय शासन नहीं, अपितु पंचायताधारित विकेन्द्रीकृत तंत्र में परिणत किया था। हर क्षेत्र को अपनी स्वायत्तता थी, पर राष्ट्रभाव सबको एक सूत्र में बांधता था। न्याय के लिए सिंहासन बत्तीसी जैसी परंपराएं थीं, जो न्यायप्रियता के प्रतीक बन गईं। ऐसे शासकों ने धर्म और राज्य को सहयोगी रूप में खड़ा किया, शोषक रूप में नहीं।
वर्तमान में जो केंद्रीकृत सत्ता प्रणाली है, वह शासन को जन से दूर करती है। भारत को यह स्वीकार करना होगा कि प्रत्येक ग्राम और नगर को शासन, न्याय और विकास में भागीदारी दी जाए। ग्राम पंचायतों को न्यायिक अधिकार दिए जाएँ, ताकि “ग्राम ही गणराज्य” बने और “लोक ही पालक” हो। भारत की मूल शक्ति – उसका समाज – यदि पुनः खड़ा करना है, तो शासन को समाज के अधीन और सेवा के भाव में ढालना होगा।
आर्थिक दृष्टिकोण से, सनातनी समाधान यही कहता है कि सरकार व्यवसाय न करे। शासन व्यापार करने लगे तो वह व्यापारी बन जाता है और व्यापारी जब नीति बनाने लगे तो वह जनविरोधी हो जाता है। भारत में व्यापार हमेशा धर्म के अधीन रहा है। “कृषि, गौ, उद्योग, लघु कुटीर, हस्तशिल्प, जल आधारित अर्थतंत्र” – ये सब मिलकर आत्मनिर्भरता के स्रोत रहे हैं। हर गाँव एक इकाई बने – जहाँ उत्पादन भी हो, वितरण भी और उपभोग भी – यही स्वदेशी अर्थतंत्र है।
आज की मुद्रा व्यवस्था केवल कागज़ी आंकड़ों की जादूगरी है। यह न तो मूल्य आधारित है, न ही दीर्घकालीन स्थायित्व की गारंटी देती है। भारत की परंपरा में मुद्रा मूल्ययुक्त होती थी – स्वर्ण, रजत, ताम्र आधारित सिक्के – जो संकट में भी मूल्यवान रहते थे। अब समय है कि भारत पुनः गोल्ड स्टैंडर्ड आधारित करेंसी की ओर बढ़े, जिससे आर्थिक संप्रभुता और मुद्रा पर विश्वास बहाल हो।
न्याय प्रणाली भी उसी मर्यादा की अपेक्षा करती है। आज न्याय के नाम पर विलम्ब, खर्च और मानसिक उत्पीड़न ही अधिक होता है। प्राचीन भारत में राजा न्याय का प्रथम सेवक होता था, न्याय का अधिकार केवल न्यायालयों तक सीमित नहीं था, बल्कि पंचायतों और समाज को भी न्याय देने की मर्यादा प्राप्त थी। यह न्याय केवल दंडात्मक नहीं, धार्मिक और लोककल्याणकारी होता था।
राज्य का स्वरूप भी मर्यादित होना चाहिए। वर्तमान में राज्य शिक्षा, संस्कृति, मीडिया, व्यापार, धर्म – सबमें हस्तक्षेप कर रहा है। यह लोकतंत्र नहीं, नवसाम्राज्यवाद है। सनातन परंपरा में राज्य केवल तीन कार्य करता है—रक्षा, न्याय और नीति निर्माण। शिक्षा, धर्म और व्यापार की स्वतंत्र सत्ता होती थी – समाज के भीतर। धर्म और राज्य के संबंध में भारत की अवधारणा यूरोपीय नहीं, वैदिक है—जहाँ राज्य धर्म से पोषित होता है, पर धर्म से बंधा नहीं होता।
आज जब ग्लोबल मार्केट फोर्सेज, चर्च, इस्लामिक कट्टरता, और वामपंथी विचारधाराएँ हमारी जड़ों को काटने में लगी हैं, तब केवल धर्म ही हमें बचा सकता है। धर्म का अर्थ पूजा-पद्धति नहीं, बल्कि जीवन की व्यवस्था है—एक ऐसी व्यवस्था जो व्यक्ति, समाज, और राष्ट्र को संतुलित करती है।
धर्म ही वह शक्ति है जो विचारों को जोड़ता है, मूल्यों को स्थिर करता है और संस्कृति को जीवित रखता है। यदि हम धर्म की रक्षा करेंगे तो धर्म हमारी रक्षा करेगा। और यह धर्म तभी सुरक्षित रहेगा जब हम उसकी जड़—सनातनी जीवन व्यवस्था को पुनः प्रतिष्ठित करेंगे
✍️ दीपक कुमार द्विवेदी
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