95 साल की उम्र की राधिका पंडिताइन 2004 में गुमनाम मौत मर गयीं । जमीन जायजाद जाने कब की रिश्तेदार हड़प चुके थे । और मायका जवानी में मुंह मोड़ चुका था ।
70 साल लम्बी जिंदगी उन्होंने अकेले काट दी अपने स्वर्गीय पति की गर्वित यादों के साथ, क्यों कि यही उनकी इकलौती पूंजी थी और ये पूंजी उन्हें भारत की सबसे समृद्ध महिला बनाती थी...
क्यों कि राधिका देवी गुमनाम होकर भी भारत की वो बेटी थी जिनका पूरा देश कर्जदार था और रहेगा
वो महज़ 14 साल की बच्ची ही थी जब विवाह आज़ के वैशाली जिले के एक समृद्ध किसान परिवार में कर दिया गया ।पति के तौर पर मिले बैकुंठ शुक्ल, उनसे तीन साल बड़े । अब गौना हो ससुराल पहुंची तब तक बैकुंठ बाबू तो अलग राह चल पड़े थे, देश को आज़ाद कराने ।
घर परिवार बैकुंठ बाबू के साथ न था सो घर छोड़ दिया पर राधिका को तो समझ ही न थी इन बातों की सीधी सरल घरेलू लड़की जिसकी दुनियाँ घर का आंगन भर थी तो वो भी पति के साथ हो ली ।
राधिका को चम्पारण के गाँधी आश्रम में छोड़ बैकुंठ बाबू अपने काम में जुट गए तो आश्रम में रह देश और आज़ादी के मायने समझ राधिका भी उस लड़ाई का हिस्सा हो ली ।
बैकुंठ शुक्ल को एक चीज खटकती थी...
जिस फणिन्द्र नाथ घोष की गद्दारी ने भगत सिंह,राजगुरु, सुखदेव को फाँसी दिलवाई वो आराम से बेतिया के मीना बाजार में सेठ बन कर जी रहा था । सरकारी इनाम से खोली दुकान और गोरी सरकार की दी सुरक्षा में वो बेतिया का प्रतिष्ठित व्यक्ति था । न किसी ने उसके कारोबार का बहिष्कार किया न उसका सामाजिक बहिष्कार हुआ । लोग आराम से इस गद्दार को सर आँखों पर रखे थे भले आज हम क्रांतिकारीयो के कितने भी गीत गाएं तब की सच्चाई यही थी हमारी । तब भी हम #दिग्भ्रमित_समाज ही थे ।
9 नवंबर 1932 को फणिन्द्र नाथ अपनी दुकान पर अपने मित्र गणेश प्रसाद गुप्ता के साथ बैठा था । तभी वहाँ बैकुंठ शुक्ल और चन्द्रमा सिंह पहुँचे, उन्होंने अपनी साइकिल खड़ी की और ओढ़ रखी चादर निकाल फेंकी । कोई कुछ समझता तब तक बैकुंठ शुक्ल के गंडासे के प्रहार फणिन्द्र नाथ और गणेश गुप्ता को उनके ही खून से नहला चुके थे । सुरक्षा में मिले सिपाही ये देख भाग खड़े हुए।
वे दौनो निकल गए और सोनपुर में साथी रामबिनोद सिंह के घर पहुँचे जो बड़े क्रांतिकारीयो के भी साथी थे। वहाँ तय हुआ के कपडे और साइकिल के चलते पकडे ही जायेंगे तो बेहतर है एक ही फाँसी चढ़े और ये जिम्मा भी बैकुंठ शुक्ल ने अपने सर ले लिया।
बैकुंठ छिपे नहीं आराम से चौड़े हो बाजार घूमते और थाने का चक्कर भी लगा आते थे तो उधर राधिका देवी को भी पति के किये की खबर थी और उन्हें पति के किये पर गर्व था।
बैकुंठ बाबू पकडे गए और अंग्रेजी कोर्ट ने मृत्युदण्ड दिया । उन्होंने पूरा अपराध अपने सर लिया। जेल में बैकुंठ जम के कसरत करते और हर साथी को बिस्मिल का गीत सरफ़रोशी की तमन्ना सुनाते। रत्ती भर भय न था मृत्यु का फाँसी के लिए लेजाते समय भी वे एकदम हँसते मज़ाक करते ही गए और सर पर काला कपड़ा पहनने से मना कर दिया। उनका वजन जेल में रह बढ़ गया था और इसके लिए उन्होंने गया जेल के गोरे जेलर को धन्यवाद दिया। रस्सी गले में डलने के बाद भी बैकुंठ ने अपने ही अंदाज़ में जल्लाद को कहा "भाई तू क्यों परेशान है खींच न.... तेरा काम कर"
15 मई को पैदा हुए शुकुल जी जन्मदिन से एक दिन पहले ही 14 मई 1934 (27 साल कि उम्र) फाँसी चढ़ गए। खुद जेल के अधिकारी अपने संस्मरण में लिखे के ऐसा जियाला उन्होंने कभी न देखा, जिसने मौत को यूँ आँखों में आंख डाल गले लगाया हो।
पर बैकुंठ शुक्ल को भी एक अफ़सोस था, पत्नी राधिका देवी के प्रति कर्तव्य पालन न कर पाने का और इसीलिए फाँसी से एक दिन पूर्व साथी क्रान्तिकारी विभूति भूषण दास से उन्होंने कहा था
देश जब आज़ाद हो जाये आप बाल विवाह की रीत बंद करवा देना, तुम इसके लिए लड़ाई लड़ना।
खैर बैकुंठ शुक्ल देश पर बलिदान हुए और भुला दिए गए तो पत्नी राधिका को भला कौन याद रखता ? लेकिन आश्रम में मिले नाम राधिका पंडिताइन और बैकुंठ बाबू की स्मृतियों के साथ उन्होंने एक लम्बा जीवन काटा, अकेले, गुमनाम और 2004 में उनकी मृत्यु भी कहीं कोई खबर न बनी ।
#स्मृति_ताकि_हम_भूले_न
#Smriti_lest_we_forget
मूल लेख : Ajai Singh
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