कभी आपने सोचा है—हम वास्तव में किससे लड़ रहे हैं? चार युद्ध हो चुके हैं पाकिस्तान से। हर बार हमने उन्हें पराजित किया, पर हर बार जीत के बाद भी कोई अधूरापन, कोई भ्रम हमारे भीतर रह जाता है। हमने उन्हें युद्धभूमि में हराया, लेकिन वे कहते हैं—हम जीते। यहां तक कि 1971 की करारी हार, जिसमें पाकिस्तान दो टुकड़ों में बँट गया, उसे भी वे "विजय" कहने का दुस्साहस करते हैं।
वे उन आक्रांताओं के नाम पर मिसाइल बनाते हैं जिन्होंने हमारे पूर्वजों के मंदिर तोड़े, हमारी संस्कृति रौंदी। गौरी, गजनवी, बाबर—इनके नामों से सजी उनकी सैन्यशक्ति इस्लामी मानसिकता की गहराइयों को उजागर करती है। उनका ध्वज, उनका नारा, उनका इतिहास—हर कोना इस मजहबी कट्टरता से भरा हुआ है जो हमें बार-बार ललकारती है।
किंतु हम?
हम सत्य को देखते हैं, महसूस करते हैं, फिर भी स्वीकार करने से डरते हैं। हम जानते हैं कि यह मानसिकता केवल पाकिस्तान की नहीं, उस मजहबी विचार की है जो छल, कपट और हिंसा को पवित्र घोषित करता है।
क्या आप भूल सकते हैं पहलगाम की वह रात?
जहाँ धर्म पूछ-पूछकर 26 निर्दोष हिन्दुओं को गोलियों से भून दिया गया। और फिर जब भारत ने प्रतिघात किया, तो पहली बार सीमाओं के पार जाकर आतंक के केंद्रों को ध्वस्त किया। पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में घुसकर किए गए हमले ने बता दिया कि भारत अब चुप रहने वाला नहीं है।
हमारे सटीक मिसाइल हमलों में सैकड़ों आतंकी मारे गए—कुछ रिपोर्टों में यह संख्या 900 तक मानी जाती है। किंतु अगले ही दिन, जब उन आतंकियों के जनाजे उठे, तो पाकिस्तान की फौज, उनके मंत्री और पूरे तंत्र ने उन्हें ‘शहीद’ का दर्जा दिया। कब्रिस्तान में हजारों लोग इकट्ठा हुए और चिल्ला-चिल्ला कर कहा—
"भारत की बर्बादी तक जंग जारी रहेगी!"
"अल्लाहु अकबर!"
और तब समझ में आया कि हमारी लड़ाई केवल एक देश से नहीं है, एक विचारधारा से है—जो कहती है:
"हमें मानो, या मरने के लिए तैयार रहो।"
जिसके लिए गजवा-ए-हिंद कोई कल्पना नहीं, बल्कि लक्ष्य है।
जिसके लिए काफिरों की स्त्रियाँ माले-ग़नीमत हैं।
जिसके लिए हत्या के बाद ‘हूरें’ इनाम हैं।
क्या कोई सभ्यता ऐसी मानसिकता से वार्ता कर सकती है?
हमने भौगोलिक सीमाओं को ही शत्रु मान लिया—कभी POK वापस लेने की बात करते हैं, कभी अमरकोट और सिंध की। लेकिन वास्तविकता यह है कि जिन्ना का पाकिस्तान हो, या बांग्लादेश—हर इस्लामी राष्ट्र ने केवल एक ही वैचारिक ध्येय अपनाया है:
हिंदू संस्कृति का विनाश।
1971 में हमने एक और इस्लामिक देश बना दिया—बांग्लादेश। लेकिन उसी ने हाल ही में अपने यहाँ हिन्दुओं पर कहर ढाया। क्या हमने सीखा?
वे जानते हैं कि उनका शत्रु कौन है।
वे एकमत हैं।
उनके जनाजों में पूरी सरकार खड़ी होती है, उनके लिए नारे लगते हैं, उत्सव मनते हैं।
हमारे यहाँ? युद्ध के दो दिन बाद ही युद्धविराम—क्योंकि हमें डर है कि कहीं हमें असहिष्णु न कह दिया जाए!
हम आज भी नहीं जानते कि हमारा शत्रु कौन है।
हम ‘पाकिस्तान’ से लड़ते हैं, जबकि समस्या तो इस्लामी कट्टरता है, जो भारत में भी है, बांग्लादेश में भी, दुनिया के हर कोने में भी।
हम ‘अखंड भारत’ का सपना देखते हैं—पर यह सपना केवल नक्शे में सीमाएँ जोड़ देने से नहीं साकार होगा। जब तक आत्मा से हम अखंड नहीं होंगे, जब तक हम अपने शत्रु की पहचान नहीं करेंगे, तब तक हर विजय एक पराजय ही बनेगी।
हमारे नेतृत्व की पीड़ा यह है कि वे 'सद्गुणों' के मोहजाल में फँसे हैं। क्षमा, सहिष्णुता, शांति—ये सब तभी तक सुंदर हैं जब तक सत्य और सुरक्षा की बलि न देनी पड़े। लेकिन अब ये सद्गुण विकृति बन चुके हैं।
हमें एक बार फिर किसी कृष्ण की प्रतीक्षा है—
जो मोहग्रस्त अर्जुन को कुरुक्षेत्र का यथार्थ समझाए।
जो कहे:
"कालोऽस्मि लोकक्षयकृत् प्रवृद्धो।"
(मैं समय हूँ, संसार का संहारक।)
जब तक वह योगेश्वर नहीं आता, तब तक यह चक्र चलता रहेगा—
विजय के बीच पराजय, आत्मविस्मरण, और संस्कृति का क्षरण।
अब समय है—सत्य को स्वीकार करने का, शत्रु को पहचानने का, और अपने भीतर छिपे युद्धवीर को जगाने का।
✍️ दीपक कुमार द्विवेदी
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